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श्रुतावतार
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वलभी पुरके संघके सहयोग से उन्हें पुस्तकारूढ़ किया । यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में आचार्य पुस्तककी सहायताके विना अपने शिष्योंको सूत्र पढ़ाते थे । किन्तु पीछे पुस्तकोंकी सहायता से शिक्षण देना आरम्भ हुआ । जैन उपाश्रयों में यह प्रथा आज भी चली आती है। इस वृद्ध सम्प्रदायका यह अभिप्राय नहीं है कि देवद्धि गणिने प्रथम बार जैन आगमोंको पुस्तकारूढ़ कराया । किन्तु उसका इतना ही मतलब है कि प्राचीन काल में आचार्य लिखित पुस्तकोंकी अपेक्षा अपनी स्मृतिके ऊपर ज्यादा निर्भर रहते थे। जैनधर्मके बुद्ध घोष देवर्द्धि गणिने खास करके समग्र साम्प्रदायिक जैन साहित्यको जो उन्हें उस समय पुस्तकों में से तथा विद्यमान आचार्योंके मुखसे प्राप्त हो सका श्रागमोंके रूपमें निबद्ध किया । यह कार्य बहुत अधिक कठिन था क्योंकि उस समय बहुत से आगम तो त्रुटित हो गये थे और उनका अमुक अमुक त्रुटित भाग शेष बचा था। इन त्रुटित भागों को देवद्धि गणिने, जो उन्हें उचित लगा, तदनुसार अनुसन्धान करके एकत्र किया । बहुतसे आगमोंमें जो असम्बद्ध और अपूर्ण वर्णन मिलते हैं, उनका कारण हम उक्त स्थितिकी कल्पनाके द्वारा समझ सकते हैं । विद्यमान जैन आगमोंकी रचना मुख्य रूप से
१. सन् ४१० और ४३२ के बीच में बुद्धघोषने वौद्ध पिटकों और कथाको पुस्तकों में लिखाया था । सिलोन में बौद्ध ग्रंथ और गुजरात में जैनग्रन्थ लगभग समान काल में पुस्तकारूढ हुए। उसके ऊपर से ऐसा अनुमान हो सकता है कि जैनोंने बौद्धोंकी इस प्रवृत्तिका अनुकरण किया । हिन्दुस्थान में ईस्वी पाँचवी शताब्दी से साहित्य के लिये लेखन कलाका बहुत उपयोग होने लगा
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