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________________ श्रुतावतार ४६६ किये जानेसे देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ही सब आगमों के कर्ता हुए। गणिजीका उक्त कथन वर्तमान जैन आगमोंके विषयमें वास्तविक स्थित हमारे सामने रखता है। यथार्थमें एक हजार वर्ष तक जो सिद्धान्त स्मृतिके अधारपर प्रवाहित होते आए हों, उनकी संकलना और सुव्यवस्थामें इस प्रकारकी कठिनाइयोंका होना स्वाभाविक है। आज भी जीर्ण शीर्ण प्राचीन प्रतिके आधारपर किसी ग्रन्थका उद्धार करनेवालोंके सामने इसी प्रकार की कठिनाइयां आती हैं। प्राचीन शिलालेखोंका सम्पादन करने वाले अस्पष्ट और मिट गये शब्दोंकी संकलना पूर्वापर सन्दर्भके अनुसार करते देखे जाते हैं। अत: देवर्द्धि ने भी त्रुटित आदि पाठोंको अपनी बुद्धिके अनुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया होगा। इसपरसे यदि उन्हें समस्त आगमोंका कर्ता न भी कहा जाये को भी आज जो आगम उपलब्ध हैं, उनको यह रूप देनेका श्रेय तो उन्हें ही प्राप्य है। किन्तु मुनि श्री कल्याण विजयजी देवद्धिगणिको यह श्रेय देनेके लिये तैयार नहीं हैं, वह उन्हें केवल लेखकके रूप में देखते हैं। अपने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना' शीर्षक विद्वत्तापूर्ण निबन्धमें मुनिजीने इस विषयपर विस्तारसे लिखा है। देवर्द्धिके कार्यके सम्बन्ध में नया मत मलयगिरि ने ज्योतिष्करण्डकी' टीका ( पृ० ४१ ) में और १-'दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा एको वलभ्यां, एको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटनेन परस्परवाचनाभेदो जातः । -ज्योति० टी०, पृ० ४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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