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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और ऋषिलोग उसको जाननेके लिये क्षत्रियोंका शिष्यत्व तक स्वीकार करते थे। आत्मविद्याके स्वामी क्षत्रिय प्राचीनकालसे ही क्षत्रिय जाति बौद्धिक जीवन और साहित्यिक कार्योंसे सम्बद्ध रहती आई है। इस तथ्यका समर्थन न केवल उपनिषदोंसे ही होता है किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ भी इसे प्रमाणित करते हैं। कौषीतकी ब्राह्मणमें ( २६-५) प्रतर्दन नामक एक राजा यज्ञके विषयमें पुरोहितोंसे वार्तालाप करता हुआ देखा जाता है। शतपथ ब्रा० में विदेहके राजा जनकका बारम्बार उल्लेख आता है, जिसने अपने ज्ञानसे सब ऋषियोंको हतप्रभ कर दिया था । राजा जनकने श्वेतकेतु, सोमशुष्म और याज्ञवल्क्यसे पूछा कि आप अग्निहोत्र कैसे करते हैं ? किन्तु उनमेंसे किसीने भी सन्तोष जनक उत्तर नहीं दिया। यद्यपि याज्ञवल्क्यको सौ गौ पारितोषिकके रूपमें मिलीं; क्योंकि उसने अग्निहोत्रके विषयमें बड़ी गहराईसे विचार किया था किन्तु अग्निहोत्रका यथार्थ आशय वह नहीं बता सके । __राजाके चले जानेपर ऋषि लोग आपसमें कहने लगे कि यह क्षत्रिय तो अपने सम्भाषणके द्वारा वास्तवमें हमें हरा गया। अब हमें शास्त्रार्थ के लिये उसे ललकारना चाहिये। किन्तु याज्ञवल्क्यने उन्हें ऐसा करनेसे रोका और कहा-हम ब्राह्मण है, और वह केवल एक क्षत्रिय है। यदि हम जीत गये तो हम कैसे कहेंगे कि हम एक क्षत्रियसे जीत गये। किन्तु यदि उसने हमें हरा दिया तो लोग कहेंगे कि एक क्षत्रियने ब्राह्मणोंको हरा दिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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