________________
प्राचीन स्थितिका अन्वेषण शरीरके दोषसे दूषित नहीं होता फिर भी वह सुख दुःखसे सर्वथा अछूता तो नहीं है। यह सोचकर इन्द्र पुनः लौटा और बत्तीस वर्ष तक प्रजापतिके पास रहा। तब प्रजापतिने कहा-'जिस अवस्थामें यह सोया हुआ दर्शनवृत्तिसे रहित और सम्यक् रूपसे आनन्दित हो स्वप्नका अनुभव नहीं करता, वह आत्मा है, वह अमृत है, अभय है, ब्रह्म है।'
इस उत्तरको सुनकर इन्द्र चल दिया। किन्तु मार्गमें उसने विचार किया-'सुप्तावस्थामें तो इसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि यह मैं हूं। उस समय तो मानों यह विनष्ट हो जाता है। अतः वह पुनः लौटकर प्रजापतिके पास आया और पांच वर्ष तक रहा । तब प्रजापतिने कहा-यह शरीर मृत्युसे ग्रस्त है, वह उस अमत अशरीरी आत्माका अधिष्ठान है। सशरीर आत्मा निश्चय ही प्रिय अप्रियसे ग्रस्त है ।""जो यह अनुभव करता है कि मैं संघू , वह आत्मा है । उसके गन्ध ग्रहणके लिये नासिका है। जो ऐसा अनुभव करता है कि मैं बोलू, वह आत्मा है, इत्यादि ।
उपनिषदोंसे दिये गये उक्त संवादोंसे यह स्पष्ट है कि उपनिषत्कालमें वैदिक ऋषियोंमें आत्मतत्त्वको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा थी। उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि वैदिक ज्ञान
आत्मज्ञानके सामने हीन है। वैदिक क्रियाकाण्डसे जो स्वर्ग मिलता है वह स्थायी नहीं है उसमें अमृतत्व और अभयत्व नहीं है, आत्मतत्त्वको जान लेनेसे ही अमृतत्व और अभयत्व प्राप्त हो सकता है अतः इन्द्र और नारद तक उसके ज्ञान के लिये लालायित थे। और ऋषि लोग परस्परमें मिलते थे तो उसीकी चर्चा करते थे। जैसे ब्राह्मणकालमें यज्ञोंकी तूती बोलती थी वैसे ही उपनिषद्कालमें उसका स्थान आत्मविद्याने ले लिया था।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org