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श्रुतावतार
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में या छटी शताब्दीके प्रारम्भ में ) गुजरातकी वलभी नगरी में पवित्र आगमोंके संकलन तथा लेखनके लिए एक सम्मेलन हुश्रा, जिसके प्रधान देवर्द्धि क्षमाश्रमण थे। बारहवां अंग, जिसमें पूर्वोको अवशिष्टांश संकलित थे, उस समय तक नष्ट हो चुका था। इसीसे हम केवल ग्यारह अंगों को पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि वर्तमानमें उपलब्ध ग्यारह अंग वही हैं जिन्हें देवर्द्धिने संकलित किया था। इस तरह हम देखते हैं कि स्वयं श्वेताम्बर जैनोंकी परम्पराके अनुसार उनके पवित्र आगमोंकी अधिकारिता ईसाकी पांचवीं शतीसे पूर्व नहीं जाती। यह ठीक है कि वे मानते हैं कि वलभी सम्मेलनमें जो आगम लिखे गये उनका आधार पाटलीपुत्रमें संकलित आगम थे और वे आगम महावीर और उनके शिष्योंसे सम्बद्ध थे। कहा जाता है कि गणधरों ने, जो महावीर के शिष्य थे, उनमें भी मुख्य रूपसे आर्य सुधर्माने महावीर स्वामीके वचनोंको अंगों और उपांगोंमें निबद्ध किया। परम्पगसे कुछ खास ग्रंथोंको बादके ग्रन्थकारोंका भी कहा जाता है। उदाहरणके लिये, चौथा उपाङ्ग आर्य श्यामाचार्यका बतलाया जाता है जिनका समय महावीर निर्वाणसे ३७६ या ३८६ वर्ष पश्चात् माना जाता है। चौथे छेद सूत्र पिण्ड नियुक्ति और ओघ नियुक्तिको भद्रबाहुकी ( वीर निर्वाणकी २ री शताब्दी) और तीसरे मूलसूत्रको सय्यंभवका, जिन्हें महावीर निर्वाणके पश्चात् चौथा युग प्रधान गिना जाता है. कहा जाता है । तथा नन्दिसूत्रको महावीर निर्वाणकी दशवीं शताब्दीमें होने वाले, वलभी सम्मेलनके प्रधान देवर्द्धिका कहा जाता है। दिगम्बर भी यह बात स्वीकार करते हैं कि महावीरके प्रथम गणधर चौदह पूर्वो और ग्यारह अंगों को जानते थे। किन्तु वे कहते हैं कि प्राचीन समय में केवल चौदह पूर्वोका ही ज्ञान लुप्त नहीं हुआ,
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