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________________ ५१८ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका बल्कि महावीर निर्वाण के ४३६ वर्ष पश्चात् ग्यारह अगों का ज्ञाता अन्तिम व्यक्ति मर गया, उसके जो उत्तराधिकारी आचार्यक्रमसे हुए, जैसे समय बीतता गया वैसे ही उनमें भी उत्तरोत्तर अंगों का ज्ञान क्रमसे कम होता गया और अन्त में महावीर निर्वाण से ६८३ वर्ष पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया । यद्यपि स्वयं जैनोंकी परम्परा उनके आगमोंके बहुत प्राचीन होनेके पक्ष में नहीं है तथापि कम से कम उनके कुछ भागों को अपेक्षाकृत प्राचीन कालका माननेमें और यह मान लेने में कि देवर्द्धिने अंशतः प्राचीन प्रतियोंकी सहायता से और अंशतः मौखिक परम्पराके आधार पर आगमोंको संकलित किया, पर्याप्त कारण है " - हि० ई० लि०, जि०२, पृ. ४३१-४३४ । डा० विन्टरनिट्सका उक्त मत बहुत सन्तुलित है और वह हमारे उक्त मतका पोषक है । उपलब्ध अंगसाहित्यके विषय में प्राप्त उल्लेखोंसे यह स्पष्ट रूपसे विदित होता है कि वीर निर्वाणको दूसरी शताब्दीसे अंग की छिन्न भिन्नता प्रारम्भ हो गयी थी और आगे भी श्रुत वह जारी रही। दो और भयानक दुर्भिक्षोंके कारण श्रुतको गहरी हानि पहुँची । सुदीर्घ कालके अतिक्रमणके साथ ही साथ सुदूर देशों का भी उसे अतिक्रमण करना पड़ा। फिर एक पक्ष ने उसे मान्य ही नहीं किया। जिस पक्षके द्वारा अंग साहित्य संकलित किया गया, उसपर बौद्धोंके मध्यममार्गका भी प्रभाव पड़ा । इन सब स्थितियों का अंग साहित्य पर प्रभाव न पड़ा हो, यह संभव प्रतीत नहीं होता । अतः यह कहना कि पाटलीपुत्रमें जो अंग साहित्य संकलित किया गया था उसमें और उसके आठसौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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