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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अपने शिष्य गणधरोंको उनकी शिक्षा दी थी। किन्तु उन पूर्वोका ज्ञान शीघ्र ही नष्ट हो गया। महावीरके शिष्योंमें से केवल एकने उस ज्ञानकी परम्पराको आगे चलाया। किन्तु वह केवल छै पीढ़ी तक ही चल सकी। महावीर निर्वाणकी द्वितीय शताब्दीमें मगध देशमें भयङ्कर दुर्भिक्ष पड़ा, जो बारह वर्षमें जाकर समाप्त हुआ। उस समय मौर्य चन्द्रगुप्त मगधका राजा था और स्थविर भद्रवाह जैन संघके प्रधान थे। दुर्भिक्षके कारण भद्रवाहु अपने अनुयायिओंके समुदायके साथ दक्षिण भारतके कर्नाटक प्रदेश में चले गये और स्थूलभद्र, जो चौदह पूर्वोको जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे, मगधमें रह जाने वाले संघके प्रधान हो गये । भद्रबाहुकी अनुपस्थितिके कारण यह प्रत्यक्ष था कि पवित्र सूत्रोंका ज्ञान विस्मृति के गर्त में चला जाता। इसलिए पाटलीपुत्र में एक सम्मेलनका
आयोजन किया गया। उसमें ग्यारह अंगोंका संकलन हुआ और चौदह पूर्वोके अवशेषोंको बारहवें अंग दृष्टिवादके रूपमें निबद्ध कर दिया गया। जब भद्रबाहुके अनुयायी मगधमें लौटकर आये तो उन्होंने देखा कि दक्षिणको चले जाने वाले और मगधमें रह जाने वालोंके बीच में एक बड़ी खाई पैदा होगई है। मगध में रह जाने वाले जैन साधु सफेद वस्त्र पहिननेके अभ्यस्त हो गये थे जब कि दक्षिण प्रवासी साधु महावीरके कठोर नियमों के अनुसार नग्न रहते थे। और इस तरह दिगम्बरों और श्वेताम्वरोंका महान संघ भेद हुआ। फलतः दिगम्बरोंने पाटलीपुत्रमें संकलित श्रागमोंको मानने से इंकार कर दिया और उन्होंने यह घोषणा कर दी कि अंग और पूर्व नष्ट हो गये। सुदीर्घ कालवश श्वेताम्बरोंके आगम अस्त व्यस्त हो गये और उनके एक दम नष्ट हो जानेका खतरा पैदा हो गया। अतः महावीर निर्वाण के ९८० या ६६३ वर्ष पश्चात् ( ईसाकी ५ वीं शताब्दीके मध्य
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