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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ब्दियोंका अन्तराल है। इनके शिष्यका नाम गुप्तिगुप्त पाया जाता है। डा० प्लीटके मतानुसार ये द्वितीय भद्रबाहु ही दक्षिण गये थे और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तका ही नामांतर चन्द्रगुप्त था। मुनि कल्याण विजय जीने भी इसी मतका समर्थन किया है। किन्तु उन्होंने द्वितीय भद्रबाहुके ईस्वी पूर्व ५३ में अथवा विक्रमकी प्रथम शतीमें होनेको गलत बतलाया है क्योंकि श्वेताम्बरीय साहित्यमें भद्रबाहुको ज्योतिषी वराहमिहिरका भाई लिखा है
और वराहमिहिरका काल शक सम्वत् ४२७ ( ई०५०५) निश्चित है।
जैसे दिगम्बर जैन परम्परामें द्वितीय भद्रबाहुको चरमनिमित्त धर लिखा है वैसे ही श्वेताम्बर परम्परामें भी भद्रबाहुको निमितवेत्ता और भद्रबाहु संहिताका कर्ता लिखा है। किन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि श्वेताम्बर ग्रन्थकारोंने वराहमिहिरके भाई निमित्तवेत्ता भद्रबाहु को ही श्रुतकेवली भी लिखा है । और यह भूल नई नहीं हैं. बहुत पुरानी है। इसी भूलके कारण नियुक्तियोंका कर्ता भी श्रुतकेवली भद्रबाहुको ही समझा जाता रहा है, जिसका परिमार्जन वृहत् कल्पसूत्रके दो भागकी प्रस्तावनामें मुनि पुण्यविजय जीने युक्ति पुरःसर किया है।
भद्रबाहु सम्बन्धी इस चिरकालीन भूलके फलस्वरूप भद्रबाहु का जीवनवृत्त तक अस्त व्यस्त हो गया प्रतीत होता है। उदाहरणके लिये श्वेताम्बर परम्परामें भद्रबाहुके गुरुका नाम यशोभद्र है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें द्वितीय भद्रबाहुके गुरुका नाम यशोभद्र है और श्रुतकेवली भद्रबाहुके गुरुका नाम गोवर्धना चार्य है। द्वितीय भद्रबाहुसे भिन्न थे क्योंकि दोनोंके मध्यमें भी कई शताब्दियोंका अन्तराल है।
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