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श्राचार्य काल गणना
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प्रारम्भ होती है । दूसरे भद्रबाहुका समय ईश्वी सन्से ५३ वर्ष पूर्व पाया जाता है । अतः दोनों भद्रबाहुओं के मध्य में तीन शता
के राज्यारोहणसे विक्रम सम्बत्का चलन मानकर डा० प्लीट वगैरइने वि० सं० ४ या ईस्वी पूर्व ५३ में द्वितीय भद्रबाहुका होना माना है । किन्तु वीर निर्वाण सम्वत् और विक्रम सम्वत् के मध्य ४७० वर्षके अन्तर
१८ वर्षकी वृद्धि कर देनेसे अथवा वीर निर्वाण से ४८८ वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत्का प्रचलित होना माननेसे जो नई श्रापत्तियाँ उठ खड़ी होती हैं उनका निर्देश श्री जुगलकिशोर मुख्तारने ( अनेकान्त, वर्ष १, वि० १, पृष्ठ १९ में ) स्पष्ट रूप से किया है । अतः वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत्की प्रवृत्ति मानना ही उचित है और तदनुसार विक्रम सम्वत् २२ से वि० सं० ४५ तक भद्रबाहु द्वितीयका काल श्राता है । सरस्वती गच्छकी पट्टावली में इन्हें ब्राह्मण बतलाया है तथा श्रायु. ७७ वर्ष बतलाई है । क० को० की कथाके श्रुतकेबली भद्रबाहु भी ब्राह्मण थे । और श्वेताम्बर परम्पराके तथोक्त श्रुतकेवली और वराह मिहिर के भाई भद्रबाहु भी ब्राह्मण थे । उनकी आयु भी ७६ वर्ष बतलाई है | सरस्वतीच्छुकी पट्टावली में भद्रबाहुके शिष्य के तीन नाम बतलाये हैं - गुप्तिगुप्त, अलि और विशाखाचार्य । श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्यका नाम भी विशाखाचार्य था तथा दिगम्बर जैन ग्रन्थोके जसवाहु श्रादि और नं० सं० पट्टावली के भद्रबाहु ( द्वितीय ) के शिष्यका नाम लोहाचार्य था । नन्दि पट्टावली के अनुसार लोहाच. यके शिष्य द्विलि और श्रद्वलिके शिष्य माघनन्दि थे । किन्तु सरस्वती ग० पट्टावली में लोहाचार्यको उमास्वामीके पश्चात् रखा है जो किसी भी तरह ठीक नहीं है | अतः द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त की स्थिति सर्वथा
सदग्ध नहीं है । यदि दूसरे भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, तो कहना होगा कि दिगम्बर परम्परा के द्वितीय भद्रबाहु श्वेताम्बर परम्पराके:
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