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________________ आचार्य काल गणना ३५१ श्रवण वेलगोलाके जिस शिलालेख नं० १ का ऊपर जिक्र किया उससे भी ऐसा अर्थ निकल सकता है कि शायद दूसरे भद्रबाहु दक्षिणको गये थे ! जैसा कि डा० प्लीट और मुनि कल्याण विजय जीका भी मत है । परन्तु यह मत भी आपत्तिपूर्ण है क्योंकि प्रथम तो द्वितीय भद्रबाहु के समय में चंद्रगुप्त नामके किसी राजाका कोई संकेत नहीं मिलता, दूसरे चंद्रगुप्त और गुप्ति गुप्तको एक माननेके लिये भी कोई प्रमाण नहीं है, तीसरे जिस दुर्भिक्षके कारण भद्रबाहको उत्तरापथसे दक्षिणापथको जाना पड़ा, द्वितीय भद्रबाहु के समय में उस दुर्भिक्षका कोई निर्देश नहीं मिलता। इन कारणोंसे ही डा० फ्लीटके मतको विद्वानोंका समर्थन नहीं मिल सका । अतः हरिषेण कथा कोशमें जो भद्रबाहुकी कथा दी है उसमें प्रामाणिकता है । यद्यपि उसमें चन्द्रगुप्तको उज्जैनीका राजा बतलाया है, किन्तु यह कथन भी आपत्तिजदक नहीं हैं, क्योंकि हम पहले बतला आये हैं कि शिशुनागवंश और नन्दवंशके राज्य में उज्जैनीका राज्य भी सम्मिलित था । तथा यद्यपि चन्द्रगुप्त 'मौर्य की प्रधान राजधानी तो पाटलीपुत्र ही थी, किन्तु कुछ अन्य राजधानियाँ भी थीं, जिनमें उज्जनका नाम भी है और जो पश्चिम खण्डकी राजधानी थी ( मा० इ०रू० भा० २, पृ० ५५८ ) । फिर कथामें चन्द्रगुप्तको उज्जैनीका राजा नहीं बतलाया । बल्कि यह बतलाया है कि जब भद्रबाहु उज्जैनी में पधारे तो उस समय उस नगर में महान श्रावक राजा चन्द्रगुप्त था । अतः उससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय चन्द्रगुप्त उज्जैन आया हुआ था । मौर्य चन्द्रगुप्तका जैन श्रमणोंके प्रति विशेष आकर्षण था यह इतिहास सिद्ध है । मेगस्थनीजने, जो चन्द्रगुप्तके दरबार में सेल्यू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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