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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कसका राजदूत था, लिखा है कि ये श्रमण ब्राह्मणों और बौद्धोंसे भिन्न थे इनका महाराज चन्द्रगुप्तके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था । वे स्वयं अथवा अपने अनुचरोंके द्वारा बड़ी विनय तथा भक्तिके साथ श्रमणोंकी पूजा किया करते थे।
मि० जार्ज सी० एम० वर्डवुकने लिखा है- 'चन्द्रगुप्त और विन्दुसार दोनों जैन थे। किन्तु चन्द्रगुप्तके पौत्र अशोकने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। ___ डा० जायसवालने लिखा है-'ये मौर्य महाराज वेदोंके कर्मकाण्डको नहीं मानते थे और न ब्राह्मणोंकी जातिको अपनेसे ऊँचा मानते थे । भारतके ये व्रात्य अवैदिक क्षत्रिय सावकालिक साम्राज्य अक्षय 'धर्मविजय' स्थापित करनेकी कामनावाले हुए। (मौ० सा० इ० की भूमिका ) - चन्द्रगुप्त मौर्यको जब जैन और बौद्ध क्षत्रिय बतलाते हैं तब ब्राह्मण पुराण उसे मुरा नामकी दासीका पुत्र बतलाते हैं। मुद्राराक्षस नाटकसे प्रकट है कि चाणक्य चन्द्रगुप्तको वृषल कहता था। जिन क्षत्रिय जातियोंपर ब्राह्मणोंका कोप हुआ वे वृषल कहलाई। इन सब बातोंसे यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ब्राह्मण धर्मावलम्बी नहीं था। शेष रहे बौद्ध धर्म और जैन धर्म । सो मौर्यवंशमें बौद्ध धर्मका प्रवेश अशोकके द्वारा हुआ। चन्द्रगुप्तका पूर्वाधिकारी नन्द जैन था, यह बात खारवेलके शिलालेखसे स्पष्ट है, क्योंकि उस शिलालेखकी १२वीं पंक्तिमें बतलाया है कि नन्द कलिंगपर चढ़ाई करके कलिंग जिनकी मूर्ति ले गया था । बृहस्पति मित्रको हराकर खारवेल उस मूर्तिको पुनः कलिंग ले आया। इस घटनासे श्री जायसवाल ने यह सिद्ध किया है कि नन्द राजा जैन थे। ( ज० वि० उ० रि० सो, जि० १३, पृ० २४५)
अतः पाटलीपुत्रके राज घरानेमें चन्द्रगुप्तसे पहलेसे ही जैन
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