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२५४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका __ कर्म जीवके गुणोंका निमूल विनाश नहीं करते; क्योंकि ऐसा माननेपर जीव द्रव्यमें पाये जानेवाले गुणोंका अभाव हो जायेगा और उनका अभाव हो जानेपर जीव द्रव्यके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। कर्मोंकी अनादि सन्तान भी बीज और अंकुरकी सन्तानकी तरह नष्ट हो जाती है। कर्मोके आनेको आस्रव कहते हैं और रुकनेको संवर कहते हैं। श्रास्रवके कारण हैं--मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग। और संवरके कारण हैं-सम्यक्त्व, संयम और विरागता आदि। अतः आस्रवके विरोधी संवरके कारणोंके प्रकट होनेपर कर्मोकी आस्रवपरम्परा विच्छिन्न हो जाती है। और इस तरह नवीन कर्मों का बन्ध रुक जाता है।
अब प्रश्न रहता है पूर्व संचित कर्मों के क्षयका। जैन सिद्धान्तमें योगके निमित्तसे कर्मो का बन्ध होता है और कषायके निमित्तसे कर्मों में स्थिति पड़ती है। इसलिये योग और कषायका अभाव हो जाने पर बन्ध और स्थितिका अभाव हो जाता है
और उससे पूर्वसञ्चित कर्मों की निर्जरा हो जाती है। तथा तपसे भी पूर्वसञ्चित कर्मोंका क्षय होता है । कर्मोंका क्षय हो जाने पर पूर्णज्ञान--जिसे जैन सिद्धान्तमें केवल ज्ञान कहते है-उसी तरह प्रकट हो जाता है जैसे मेघ पटलके हटने पर सूर्य। _ अतः जैसे निरावरण सूर्य समस्त जगत्को प्रकाशित करता है वैसे ही निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन समस्त जगत्को जानते देखते हैं। इसीसे केवलज्ञानीको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहा जाता है। वह केवलज्ञानी असत्यार्थक प्रतिपादन नहीं कर सकता क्योंकि असत्य कथन करनेके कारण हैं--
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