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प्राचार्य काल गणना श्वेताम्बर पट्टावलीमें उनकी आयु ७६ वर्षके लगभग बतलाई है, किन्तु सरस्वती गच्छकी दिगम्बर पट्टावलीमें द्वितीय भद्रबाहुकी उतनी ही अवस्था बतलाई है और श्वेताम्बर अनुश्रुतियोंमें दोनों भद्रबाहुओंमें ऐसा गड़बड़ घोटाला कर दिया गया है कि दोनोंका अस्तित्व एकमें ही गर्भित हो गया है । अतः यह संभव है कि द्वितीय भद्रबाहुकी आयु प्रथम भद्रबाहुको भी दे दी गई हो । अतः भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समय ई० पूर्व ४०० से ईस्वी पूर्व ३०० के लगभग ही मानना चाहिये। अर्थात् वीर निर्वाण १२७ से २२७ तक। तथा स्थूलभद्रका समय वीर निर्वाण सं० १५७ से २५७ तक, और आर्य सुहस्तीका वीर नि० सं० २०० से ३०० के लगभग मानना चाहिये। ऐसा माननेसे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त, स्थूलभद्रके पिता शकटाल और अन्तिम नन्द तथा आर्य महागिरि आर्य सुहस्ती और सम्प्रतिका लोक विश्रुत साहचर्य बन जाता है।
आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्वमें चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यकाल में ही बारह वर्षके दुर्भित, अङ्गोंका सङ्कलन और भद्रबाहुका स्वर्गगमन आदि बतलाया है। किन्तु राज्य त्याग कर चन्द्रगुप्तके भद्रबाहुके साथ जानेकी चर्चा नहीं की है यद्यपि चन्द्रगुप्तका समाधिपूर्वक मरण बतलाया है । इसका एक ही कारण हो सकता है कि चूँ कि इस अनुश्रतिका दिगम्बर जैन मान्यताके साथ गहरा सम्बन्ध है, अतः उन्होंने इसे स्थान देना उचित नहीं समझा होगा । दिगम्बर परम्परामें भी अनेक श्वेतांब. रीय अनुश्रुतियोंको स्थान नहीं दिया गया है। किंतु इससे ऐतिहासिक तथ्यको ओझल नहीं किया जा सकता।
अतः चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी समकालीनता अवश्य ही एक ऐतिहासिक तथ्य प्रतीत होती है और इसलिये
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