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________________ प्राचार्य काल गणना ३४७ १८, ४०, ५४ और १०८' में भद्गबाहुको श्रुतकेवली तथा चन्द्रगुप्तको उनका शिष्य बतलाया है । यहाँ यह स्पष्टीकरण कर देना उचित होगा कि दि० पट्टावलिमें भद्रबाहु नामके दो आचार्योंका उल्लेख ५-'श्री भद्रः सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः। श्रुतकेवलि नाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ ४ ॥ 'चन्द्रप्रकाशोज्ज्वल सान्द्र की श्री चन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः ।" २-यो भद्रबाहुः श्रतकेवलीनां मुनीश्वराणाभिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद् विदुषां विनेता सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ॥ ८ ॥ तदीय शिष्यो जनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः । -जै० शि० सं०, भाग १ । ३-ति० प० अ० ४, गा० १४९०, श्रुतस्कन्ध गा० ७६, श्रुताव० श्लोक ८३, ज० ध०, भाग १, पृष्ठ ८६, धवला पु० १, पृष्ठ ६६ में द्वितीय भद्रबाहुका नाम नहीं आया । 'जहबाहु', जयबाहु, जसबाहु नाम पाया जाता है । भद्रबाहु नाम केवल पट्टावलीमें पाया जाता है । ति० ५० आदिके अनुसार यह जयबाहु ( भद्रबाहु ) आचारांगधारियोंकी परम्परामें तीसरे थे । और महावीर निर्वाणसे ६२+१००+१८३+ २.० % ५६५ पर्षों के पश्चात् आचारांगधारियों की परम्परा प्रारम्भ हुई । तथा चार आचारांगधारियोंका काल ११८ वर्ष बतलाया है । अतः यदि अन्तिम आचारांगधारो लोहाचार्यका काल ५० वर्ष माना जाये तो ११८-५० = ६८ वर्षको ५६५ में जोड़नेसे ( ५६५ +६८-६३३) महावीर निर्वाणसे ६३३ वर्ष पश्चात् दूसरे भद्रबाहुका अन्तकाल आता है। अर्थात् ६३३-५२७%3D१०६ ई० या ६३३--४७० =१६३ विक्रम सम्सत्में द्वितीय भद्रबाहुका मरण हुआ। किन्तु नन्दी संघकी पहावलीमें सामूहिक काल के साथ ही साथ प्रत्येक प्राचार्यका पृथक् २ काल भी दिया है। किन्तु उसमें प्रथम तीन केवलियों, पाँच श्रुत केव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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