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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका का दुर्भिक्ष भी अविश्वसनीय नहीं है । संक्षेपमें अन्य कोई वृत्तान्त उपलब्ध न होनेके कारण इस क्षेत्रमें जैन कथन ही सर्वोपरि प्रमाण है।' ( जै० शि० सं०, भाग १, भूमिका पृ० ६८-७० से )
डा० स्मिथने सातवीं शतीके जिन शिलालेखोंका निर्देश किया है उनमें श्रबण वेलगोलाके चन्द्रगिरिपर स्थित पार्श्वनाथ वस्तीके पासका शिलालेख ( नं० १ ) इस सम्बन्धमें सबसे प्राचीन प्रमाण है। यह लेख श्रवण वेलगोलाके शिलालेखोंमें सबसे प्राचीन माना जाता है । इसमें लिखा है-'महावीर स्वामीके पश्चात् गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु विशाख प्रो.ष्ठल, कृतिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेण, बुद्धिलादि गुरु परम्परामें होनेवाले भद्रबाहुके त्रैकाल्यदर्शी निमित्त ज्ञानके द्वारा उज्जनीमें यह कथन किये जानेपर कि वहाँ बारह वर्षका दुर्भिक्ष पड़नेवाला है, सारे संघने उत्तरायणसे दक्षिण पथको प्रस्थान किया और क्रमसे वह बहुत समृद्धियुक्त जनपदमें पहुंचा। भद्रबाहु स्वामी संघको आगे बढ़नेकी आज्ञा देकर आप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य सहित कटवप्रपर ठहर गये और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया।
द्वितीय भद्रबाहुकी स्थिति इस शिलालेखमें भद्रबाहुको श्रुतकेवली न बतलाकर निमित्त. ज्ञानी बतलाया है तथा चन्द्रगुप्तके स्थानमें प्रभाचन्द्र नामका प्रयोग किया है। किन्तु श्रवण वेलागोलाके शिलालेख नं० १७,
१- श्री भद्रबाहु सचन्द्रगुप्त मुनीन्द्रयुग्म ...।
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