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________________ ३४५ प्राचार्य काल गणना ठीक प्रकाश एकमात्र जैन कथाओंसे ही पड़ता है। जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राटको बिम्बसारके सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वासको झूठ कहनेके लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि शैशुनाग नन्द और मौर्य राजवंशोंके समयमें जैनधर्म मगध प्रान्तमें बहुत जोर पर था।x x एक बार जहाँ चन्द्रगुप्तके. धर्मावलम्बी होनेकी बात मान ली तहाँ फिर उनके राज्यको त्यामकर जैन विधिके अनुसार सल्लेखना विधिके द्वारा मरण करनेकी बात सहज ही विश्वसनीय हो जाती है। जैन ग्रंथ कहते हैं कि जब भद्रबाहुकी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षवाली भविष्यवाणी उत्तर भारत में सच होने लगी तब आचार्य बारह हजार जैनियों ( मुनियों) को साथ लेकर अन्य सुदेशकी खोजमें दक्षिणको चल पड़े। महाराज च द्रगुप्त राज्य त्याग कर संघके साथ हो लिये। यह संघ श्रवणबेलगोल पहुँचा। यहाँ भद्रबाहुने शरीर त्याग किया। राजर्षि चन्द्रगुप्तने उनसे बारह वर्ष पीछे समाधिमरण किया। इस कथाका समर्थन श्रवणवेल गोला आदिके नामों, ईसाकी सातवीं शताब्दीके उपरान्तके लेखों तथा दसवीं शताब्दीके ग्रन्थोंसे होता है। इसकी प्रामाणिकता सर्वतः पूर्ण नहीं कही जा सकती। किन्तु बहुत कुछ सोच विचार करनेपर मेरा झुकाव इस कथनकी मुख्य बातोंको स्वीकार करनेकी ओर है। यह तो निश्चित ही है कि जब ईस्वी पूर्व ३२२ में या उसके लगभग चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए थे तब वे तरुण थे। अतएव जब २४ वर्षके पश्चात् उनके राज्यकालकी समाप्ति हुई तब वे पचास वर्षकी अवस्थासे नीचे ही होंगे। अतः इतनी कम अवस्थामें उनका राज्य त्याग देने और लुप्त हो जानेका उक्त कारण ही प्रतीत होता है। राजाओंके इस प्रकार विरक्त हो जानेके अन्य भी उदाहरण हैं । और बारह वर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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