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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बाद सन्यासी हो जाना चाहिए, यह नियम वैदिक साहित्यमें नहीं मिलता। पौराणिक परम्पराके अनुसार राज्य त्यागकर बनमें चले जानेकी प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी । ग्रीक लेखकोंके लेखों से भी इसका समर्थन होता है (वै० इं• 'ब्राह्मण' शब्द ) । ___ गौतम धर्म सूत्र (८-८ } में एक प्राचीन अचार्यका मत दिया है कि वेदोंको तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है। वेदमें उसीका प्रत्यक्ष विधान है इतर आश्रमोंका नहीं। अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ब्रह्मचर्याश्रमका, विशेषतः उपनयनका विधान आया है। किन्तु चार आश्रमोंका उल्लेख छा० उप० में है। अतः विद्वानों का मत है कि वानप्रस्थ और सन्यास को वैदिक आर्योने अवैदिक लोगोंकी संस्कृतिसे लिया है । ( हि ध०स०, पृ० १२७ )
आप बाल्मीकि रामायणको देखें-इसमें किसी भी संन्यासी के दर्शन नहीं होते । हाँ, वानप्रस्थ सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। ____ लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमें 'संन्यास और कर्मयोग' नामक प्रकरणमें इस बातका जोरदार समर्थन किया है कि वैदिक धर्ममें संन्यास मार्ग विहित नहीं था। वह लिखते हैं-'वेदसंहिता और ब्राह्मणोंमें संन्यास आश्रम आवश्यक कहीं नहीं कहा गया है। उलटा जैमिनिने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है कि ग्रहस्थाश्रममें रहनेसे ही मोक्ष मिलता है । देखो वेदान्तसूत्र ३. ४. १७-२० ) और उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है, क्योंकि कर्मकाण्डके इस प्राचीन मार्गको गौण माननेका प्रारम्भ उपनिषदोंमें ही पहले पहल देखा जाता है। यद्यपि उपनिषद् वैदिक हैं, तथापि उनके विषय प्रतिपादनसे प्रकट होता है कि वे संहिता और ब्राह्मणोंके पीछेके हैं, इसके मानी यह नहीं, कि इसके पहले परमेश्वरका ज्ञान हुआ ही नहीं
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