SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अथवा छठी शतीमें तैयार किया गया है। और अभी भी इस बातके समर्थक प्रमाणोंकी आवश्यकता है कि प्राचीन कालमें जैन लोग एक सुनिश्चित परम्पराके अधिकारी थे। मैं तोंकी शृङ्खला में उस खोई हुई कड़ीको जोड़नेमें योग्य हूँ, इस विश्वास और अपने दो आदरणीय मित्रोंके सन्देहोंको दूर करनेकी आशाने मुझे समस्त प्रश्न पर सम्बद्ध कथन करनेके लिये प्रेरित किया है। यद्यपि इसमें पुनरुक्ति भी होगी तथा इसके प्रथम भागमें पूर्णतया जेकोवीकी खोजोंका ही सारांश रहेगा। ___ इस प्रकार डा० याकोवी और वुहलर आदि जर्मन विद्वानोंकी खोजोंके फलस्वरूप जैनधर्म न केवल बौद्धधर्मसे एक स्वतंत्र धर्म प्रमाणित हुआ किन्तु उससे प्राचीन भी प्रमाणित हुआ। बौद्धधर्म के मान्य विद्वान और लेखक श्री रे डेविडसने भी स्वीकार किया है कि भारतके सम्पूर्ण इतिहासमें बौद्धधर्मके उत्थानसे लगाकर आजतक जैन लोग एक व्यवस्थित समाजके रूपमें रहते आये हैं। श्री याकोवी जैनधर्मको बौद्धधर्मसे प्राचीन प्रमाणित करके ही चुप नहीं बैठे, उन्होंने बुद्धसे २५० वर्ष पूर्व होनेवाले भगवान् पार्श्वनाथको भी ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित किया, और उनकी इस खोजको भी इतिहासज्ञोंने आदर पूर्वक स्वीकार किया। आज उनकी खोजोंके फलस्वरूप जैनधर्मके २३ वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक मान लिया गया है। किन्तु जेकोवी अपनी इस शोधको ही अन्तिम सत्य नहीं मानते थे। इसीसे उन्होंने लिखा था-'इसमें कोई सबूत नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको जैनधर्मका संस्थापक मानने में एकमत है। इस १. बु० ई०, पृ० १४३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy