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________________ जैनधर्मके इतिहास की खोज और उसका परिणाम इस मतकी सत्यतामें विश्वास करता था और मैंने जैनों को सम्मतीय ( ? ) बौद्ध शाखाका समझा । किन्तु अंग्रेजी सरकार के लिये ग्रन्थ संग्रह करनेके कारण मुझे जैन साहित्यका विशेष रूपसे परीक्षण करना पड़ा तो मैंने पाया कि जैनोंने अपना नाम बदल दिया है । अति प्राचीन काल में वे निग्रन्थ कहे जाते थे । मैंने देखा कि बौद्ध लोग निग्रन्थोंसे परिचित थे, उन्होंने उनके प्रभाव तथा संस्थापकका वर्णन बुद्धके प्रतिद्वन्दीके रूपमें किया है और लिखा है कि पावामें उसकी मृत्यु हुई। जैनोंमें अन्तिम तीर्थङ्करका निर्वाणस्थान भी पावा माना जाता है। इससे मुझे स्वीकार करना पड़ा कि जैन और बौद्ध एक ही धार्मिक आन्दोलन से उपजे हैं। मेरी इस धारणाका समर्थन जेकोबीने किया । जेकोबी मेरेसे स्वतन्त्र दूसरे मार्गसे लगभग इसी परिणाम पर पहुँचे थे । उन्होंने बतलाया कि बौद्ध त्रिपिटकोंमें अन्तिम तीर्थङ्कर का जो नाम आता है वही नाम जैन श्रागमोंमें भी आया है । इन्डि० एण्टि०, जि० ७ पृ० १४३ में तथा जेकोवीके द्वारा सम्पादित कल्पसूत्रकी प्रस्तावना में हमारे इस मतका प्रकाशन होनेके बाद उक्त प्रश्न पर मतभेद हो गया। ओल्डन वर्ग, कर्न, हार्न तथा अन्य विद्वानोंने हमारे नये मतको बिना किसी हिचकिचाहट के मान लिया । किन्तु ए० वेबर और बार्थ (रि० इ० ) अपने पुराने मत पर ही रहे । बार्थ जैन परम्परा पर विश्वास नहीं और यह संभव मानता है कि जैन परम्पराके कथन असत्य हैं । निश्चय ही इस स्थितिको स्वीकार करने में बड़ी कठिनाइयाँ हैं, बल्कि यह बात अनहोनी-सी है कि बौद्ध लोग अपने घृणित विरोधियोंके धर्म परित्यागकी घटनाको भूल गये ( ? ) | किन्तु यह बात एकदम असंभव नहीं है क्योंकि प्राचीनतम सुरक्षित जैन आगमोंका प्रथम प्रामाणिक संस्करण ईस्वी सनकी पाँचवीं करता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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