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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
भाषा के शब्द और प्रत्यय ग्रीक और लैटिन भाषासे बहुत मिलते जुलते हैं । इस परसे यह प्रश्न पैदा हुआ कि इस समानताका क्या कारण है ? इसी प्रश्नके समाधान के लिये की गई खोजोंके फलस्वरूप आर्योंके भारतमें श्राकर वसनेकी कथा प्रवर्तित हुई और तुलनात्मक भाषाविज्ञानने जन्म लेकर ऐतिहासिक अनुसन्धान को नई दिशा प्रदान की । उसीके फलस्वरूप ऋग्वेदको विश्वकी प्राचीनतम पुस्तक और आर्योंके ज्ञान-विज्ञानका
अक्षय भण्डार बतलाया गया ।
वैदिक साहित्य से परिचित होनेके पश्चात् पाश्चात्य विद्वान् क्रमसे बौद्ध और जैन साहित्य के सम्पर्क में आये | और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक पद्धतिके द्वारा उपलब्ध साधनोंके आधारपर इन धर्मोंकी खोजबीन आरम्भ की। किन्तु उस समय तक युरोप में जैन ग्रन्थों का मिलना दुर्लभ था, अतः बहुत समय तक वे जैन धर्म के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट मत नहीं बना सके, और जैन धर्मके आरम्भको लेकर यूरोपीय संस्कृतज्ञ विद्वानोंकी पूर्व पीढी मुख्यरूप से दो मतों में विभाजित हो गई। उस समयकी इस स्थितिका पूरा विवरण डॉ० बुहलरने अपनी पुस्तिका (इं० से० जै० पृ० २३) में इस प्रकार दिया है- 'कोलक, स्टिवेन्सन और थामसका विश्वास था कि बुद्ध जैनधर्मके संस्थापकका विद्रोही शिष्य था । किन्तु उससे भिन्न मत एच० एन० विल्सन, ऐ- वेबर और लॉर्सनका था, और साधारणतया यही मत माना जाता था । उनके मतानुसार जैनधर्म बौद्धधर्मकी एक प्राचीन शाखा थी । इस मतका आवार था जैनों और बौद्धोंके सिद्धान्तों, लेखों और परम्पराओं में समानताका पाया जाना और बौद्धोंके साहित्यकी भाषा से जैन आगमी भाषाका अधिक आधुनिक होना तथा जैन आगमोंके प्राचीन होने में विश्वसनीय प्रमाणोंका अभाव । प्रथम मैं भी
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