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________________ श्रुतपरिचय ६६६ पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्याका भी प्ररूपण करता है ( षट्खं० पृ० १०५। क. पाः, भा. १, पृ० १३१ )। प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ अप्रश्न और एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्नोंका कथन रहता है। अन्य भी अनेक विद्यातिशयोंका तथा नागकुमार और सुपर्णकुमार तथा अन्य भवनवासी देवोंके साथ साधुओंके दिव्य सम्वादोंका वर्णन रहता है । ( नन्दी, सूत्र. ५५ । समवा० सू. १४५ ) । उपलब्ध 'पण्हावागरणाई' नामक दसने अगमें दस द्वार हैं। जिनमें पाँच ब्रतोंका तथा पाँच पापोंका वर्णन है। जम्बूको लक्ष्य करके सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। प्रश्नोंके व्याकरण के रूपमें कुछ भी नहीं है। अतः ग्रन्थ में वर्णित विषयकी न तो उसके नामके साथ ही कोई संगति है और न ग्थानांग समवायांग और नन्दिमें दत्त विषय सूचीके साथ ही उसका कोई मेल है। समवाय और नन्दिके अनुसार प्रश्न व्याकरण में ४५ अध्ययन और ४५ उद्देश आदि हैं। किन्तु प्रस्तुत अगमें यह सब कुछ भी नहीं है। स्थानांगमें प्रश्न व्याकरणमें दस अध्ययन बतलाये हैंउवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरिय भासिआई, महावीर भासिआई, खोमग पसिणाई, कोमल पसिणाई, अदाग पसिणाई, अंगुट्ठ पसिणाई और बाहु पसिणाई। अध्ययनोंकी दस संख्या को देखकर ऐसा लगता है कि स्थानांगका वर्णन उपलब्ध प्रश्न व्याकरण नामक अंग से मेल खाता है क्योंकि उसके द्वारोंकी संख्या भी दस है। किन्तु दस द्वारों के नामोंका स्थानांगमें दिये दस अध्ययनोंके नामोंसे रंचमात्र भी साम्य नहीं है। अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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