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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्व जैन सहित्यमें भगवान महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बतलाया है। सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्वकी प्राप्ति उन्हें तपस्याके पश्चात् ही हुई थी। जन्मसे तो महावीर भी असर्वज्ञ और असर्वदर्शी थे। बारह वर्षकी कठोर साधनाके द्वारा आत्माकी पूर्णज्ञान शक्ति और पूर्णदर्शन शक्तिके आवारक चार घातिकर्मों को नष्ट करके उन्होने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप चतुष्टयको प्रकट किया। इसीसे वे सर्वज्ञ और सर्गदर्शी हो गये। यहां संक्षेपमें प्रकृत विषय पर प्रकाश डालना अनुचित न होगा।
जैन सिद्धान्तमें ज्ञान और दर्शनको आत्माका गुण माना है। यद्यपि अल्पज्ञ अवस्थामें इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है किन्तु ज्ञान जीवका ही गुण है, इन्द्रियोंका नहीं; क्योंकि इन्द्रियोंके विना भी ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। अतः जैन दर्शनमें जीव ज्ञानदर्शनलक्षण वाला माना गया है। किन्तु सब संसारी जीवोंमें ज्ञान और दर्शन एकसा नहीं पाया जाता । उनमें तर-तमभाव देखा जाता है। किसी संसारी जीवमें ज्ञानका विशेष विकास पाया जाता है तो किसीमें स्वल्प । इस तर-तमभावको निष्कारण नहीं माना जा सकता। इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिये। जैन दर्शनमें इस तर-तमता का कारण आवरण कर्म माना गया है। आवारक कर्मके ही कारण आत्माका पूर्णज्ञान अविकसित रहता है और उसके कतिपय अंश ही तर-तमताको लिये हुए विभिन्न संसारी जीवों में प्रकट देखे जाते हैं।
आत्माके ज्ञान दर्शन आदिके आवारक कर्म भी सहेतुक
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