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जै० सा० इ० पू०-पीठिका प्रथम छेद सूत्र निशीथ है। कहा गया है कि प्रस्तुत सूत्र प्रारम्भ में भी ऐसा ही पृथक था जैसा आज है। किन्तु पश्चात् प्रथम आचारांग में मिल गया और पुनः उससे पृथक् हो गया। इसमें बीस उद्देशक हैं। उनमें बतलाया है कि करने, कराने और अनुमोदनासे साधु प्रायश्चित्तका भागी होता है। अन्तिम उद्देसकमें मासिक, चातुर्मासिक आदि प्रायश्चित्तोंका और उनकी विधि बतलाई है। विन्टर नीट्स इसे अर्वाचीन बतलाते हैं। __दूसरा छेद महानिशीथ है । नन्दिसूत्र वगैरहमें अनंग प्रविष्टमें इसका नाम आता है। इसका प्रारम्भ अंगोंकी तरह सुयं मे पाउसं तेनं भगवया एवं आक वायं' ( आयुष्मनः मैंने सुना उन भगवानने ऐसा कहा) वाक्यसे होता है और प्रत्येक अध्ययन 'त्ति वेमि' के साथ समाप्त होता है। श्री वेबर का कहना था कि इसके सिवाय अन्य कोई बात इसमें ऐसी नहीं है जिससे इसे प्राचीन कहा जा सके । इसके छठे अध्ययनमें 'दसपुव्वी'का निर्देश है। अतः इसकी रचना अन्तिम दस पूर्वी वन स्वामीके पश्चात् होनी चाहिये।
कहा जाता है कि मूल महा निशीथ सूत्र तो नष्ट हो गया। हरिभद्रसूरि ने उसका फिरसे उद्धार किया। वर्तमान महानिशीथ सूत्रमें आलोचना और प्रायश्चित्तका वर्णन है। व्रतभंगसे
१ 'जं च महाकप्पसुयं जाणिय सेसाणि छेदसुचाणि । चरणकरणाणुरोगोत्ति कालियत्थे उवगयाणि ।' ७७७ । श्राव० नि० । वि० भा० गा० २२६५ । २-इं. ए. जि. २१, पृ० १८५ । हि. इं. लि. (विन्ट.) जि २, पृ. ४६५ ।
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