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________________ श्रुतपरिचय ६६५ खासकर ब्रह्मचर्यव्रतके भंगसे कितना दुःख उठाना पड़ता है यह बताकर कर्म सिद्धान्त को सिद्ध किया है। इसमें तांत्रिक कथनों का तथा आगमेतर ग्रन्थों का निर्देश होनेसे यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ अर्वाचीन है। 'कहीं कहीं इसे छठा छेद सूत्र भी बतलाया है । इस पर केवल चूर्णि है, कोई टीका नहीं है। तीसराछेद सूत्र व्यवहार है। आवश्यक सूत्रके अनुसार दसा, कप्प, व्यवहार एक श्रुत स्कन्ध है और उसका नाम 'दसा कप्प व्यवहार' है। इसमें व्यवहारको कल्पके बाद रखा गया है। किन्तु रत्नसागरमें व्यवहारको छेद सूत्रों में सर्वोपरि बतलाया है । इसमें दस उद्देसक हैं। पहले उद्देसकमें बतलाया है कि आलोचना करने वाला और आलोचना सुनने वाला साधु कैसा होना चाहिये । तथा आलोचना किस भावसे करनी चाहिये और उसका क्या प्रायश्चित्त देना चाहिये। दूसरेमें बतलाया है कि एक संघके दो साधु साथ-साथ बिहार करें और दोनों को दोष लगे तो एक तपश्चर्या करे, दूसरा उसकी वैयावृत्य करे। फिर दूसरा तपश्चर्या करे और पहला वैयावृत्य करे। इसी तरह यदि अनेक साधु साथ २ विहार करते हों तो जिसको दोष लगे वह तपश्चरण करे। किन्तु बिना कारण किसी तपस्वीसे अपनी वैयावृत्य नहीं कराना चाहिये । इत्यादि अनेक बातोंका कथन है । तीसरे उद्देसकमें बतलाया है कि गणी पद किसे देना चाहिये। चौथेमें बतलाया है कि किस रीतिसे विहार करना चाहिये और कैसे चतुमोस करना चाहिये । पांचवेमें साध्विओं के विहार तथा चतुर्मासकी रीति बतलाई है। छठेमें साधुकी भिक्षा, वसति आदि सम्बन्धी दोषोंके प्रायश्चित्तका विधान है। १ जै. सा. इ. (गु०), पृ. ७६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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