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________________ श्र तपरिचय ६६१ और अजीव की, सोलहवें और बाईसवें पदोंमें आस्रवकी, तेईसवें पद में बन्धकी, तथा छत्तिसगें पदमें केवलि समुद्घात की चर्चा करते हुए संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्ररूपणा है । ग्रन्थ का आरम्भ पञ्च नमस्कार मंत्र से होता है । उसके पश्चात् 'एसो पंच णमोयारो' आदि पद्य है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वज्रस्वामीका माना जाता है । उसके बाद नौ कारिकाओं ग्रन्थ का आरम्भ होता है । डा० जेकाबी इन गाथाओं को देवद्धि गण की कृति बतलाते थे । इन गाथाओं में से पहली गाथा में भगवान महावीर का स्तवन है, दूसरीमें 'पण्णवणा' का और तीसरी चौथी गाथाओं में उसके कर्ता श्यामार्य का । उनमें श्यामार्यको तेईसवां धीरपुरुष बतलाया है। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार श्यामार्य सुधर्मा के बाद तेईसव थे। किन्तु तपागच्छ की पट्टावली में नौवें सुस्थितके समकालीन महागिरिके शिष्य बलिरसह और बलिरसह के शिव्य सूत्रकार स्वाति और उनके शिष्य श्यामाचार्यको श्यामार्य बतलाया है। नन्दीसूत्र और मेरुतुंगकी प्राचीन स्थविरावलियों में वीर भगवान् के बाद श्यामार्यका नम्बर तेरहवां है। अतः तेईसवीं संख्या घटित नहीं होती । किन्हींका ऐसा भी सुझाव रहा है कि भगवान महावीर से गणना करते समय उनके ग्यारह गणधरोंको भी सम्मिलित कर लेने से श्यामार्यका नम्बर तेईसवां आ जाता है । किन्तु अन्यत्र कहीं भी पट्टधरोंकी गणना में ग्यारह गणधरों को सम्मिलित नहीं किया गया' । अस्तु इस पर भी मलय गरिकी टीका संस्कृत में हैं । १ - ई० ए०, जि० २०, पृ० ३७३ । २ हि० इं०लि०, जि० २, पृ० ४५७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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