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________________ १०२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अंकित बैठी हुई और खड़ी हुई देव मूर्तियोंकी शैलीमें घनिष्ट सादृश्य उस सुदूर कालमें योगके प्रसारको सूचित करता है, एक कामचलाऊ कल्पनाके रूपमें मानलेनेके योग्य है। और आध्यात्मिक विचार सरणी पर पहुंचे बिना योगाभ्यास करना संभव नहीं है।" ( मार्डन रिव्यु जून १९३२ में श्री चन्दा के लेख से ) डा० राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी 'हिन्दू सभ्यता' नामक पुस्तकमें श्री चन्दाके उक्त मतको मान्यता देते हुए लिखा है'उन्होंने ( श्री चन्दाने ) ६ अन्य मुहरों पर खड़ी हुई मूर्तियोंकी ओर भी ध्यान दिलाया है। फलक १२ और ११८ आकृति ७ ( मार्शलकृति मोहेंजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हुए देवताओंको सूचित करती हैं। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूपसे मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालयमें स्थापित तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देवताकी मूर्तिसें । ऋषभका अर्थ है बैल, जो आदिनाथका लक्षण है। मुहर संख्या F. G. H. फलक दो पर अंकित देवमूर्तिमें एक बैल ही बना है; संभव है यह ऋषभका ही पूर्वरूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्मकी तरह जैनधर्भका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके बीचकी खोई हुई कड़ीका भी एक उभय-साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' (हि० स० २३-२४) यह पहले लिख आये हैं कि सिन्धु घाटीकी सभ्यता वैदिक सभ्यतासे भिन्न थी । वैसे ही जैसे श्रमण परम्परा ब्राह्मण परम्परासे भिन्न है। ब्राह्मण परम्परा मूलतः ब्राह्मणोंकी परम्परा है और श्रमण परम्परा श्रमणोंकी योगियोंकी परम्परा है; क्योंकि जैन और बौद्ध साधु श्रमण कहे जाते थे और वे एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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