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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये प्रेरित करती है कि सिन्धुघाटीमें उस समय योगाभ्यास होता था और योगीकी मुद्रामें मूर्तियां पुजी जातो थी। मोहें जो-दड़ो और हरप्पासे प्राप्त मोहरें जिनपर मनुष्यरूपमें देवोंकी आकृति अंकित है, मेरे इस निष्कर्षको प्रमाणित करती हैं।
'सिन्धुघाटीसे प्राप्त मोहरों पर बैठी अवस्थामें अंकित देवसाओंकी मूर्तियां हो योगकी मुद्रामें नहीं हैं किन्तु खड़ी अवस्थामें अंकित मूर्तियाँ भी योगकी कायोत्सर्ग मुद्राको बतलाती हैं, जिसका निर्देश ऊपर किया गया है। मथुरा म्युजियममें दूसरी शतीकी, कार्योत्सगमें स्थित एक वृषभदेव जिनकी मूर्ति है। इस मूर्तिकी शैलीसे सिन्धुसे प्राप्त मोहरों पर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैली बिल्कुल मिलती है ।... ...मिश्र देशमें प्राचीन वंशोंके समयकी मूर्ति निर्माणकलामें भी दोनों ओर हाथ लटकाकर खड़ी हुई छोटी मूर्तियाँ मिलती है। यद्यपि ये मूर्तियां भी उसी शैलीकी हैं किन्तु सिन्धु-मोहरों पर अंकित खड़ी आकृतियोंमें और कायोत्सर्गमें स्थित जिनकी मूर्तियोंमें जो विशेषताएं हैं, उनका उन मूर्तियोंमें प्रभाव है।"
ऋषभ या वृषभका अर्थ होता है बैल, और ऋषभ देव तीर्थकरका चिन्ह बैल है। मोहर नं. ३ से ५ तकके ऊपर अंकित देव मूर्तियोंके साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभका पूर्वरूप हो सकता है । शैवधर्म और जैनधर्म जैसे दार्शनिक धर्मोके प्रारम्भको पीछे ठेल कर ताम्रयुगीन काल में ले जाना किन्हींको अवश्य ही एक साहस पूर्ण कल्पना प्रतीत होगा। किन्तु जब एक व्यक्ति ऐतिहासिक और प्राग ऐतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यताके बीचमें एक अगम्य झाड़ी झंखाड़ होनेकी उससे भी साहसपूर्ण कल्पना करनेके लिये तैयार है तो यह अनुमान कि सिन्धु मोहरों पर
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