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________________ १०० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अभ्युन्नत था। किन्तु यह बतलानेके लिये पर्याप्त प्रमाण है कि उसने भी ठीक उसी मार्ग पर चलना प्रारम्भ किया था।' इतना स्पष्ट करके श्री चन्दा आगे लिखते हैं-'वैदिक विधि विधानको छोड़कर योग शेष समस्त ऐतिहासिक भारतीय धर्मोंका मूल है। समस्त भारतीय सम्प्रदाय मानते हैं कि योगकी साधना के लिए आसन सर्वथा आवश्यक है। श्वेताश्वर उपनिषद् (२-८) के अनुसार छाती, सिर और गर्दनको एक सीधमें रखना योगका मूल है। भगवद्गीतामें ( ६-१३ ) इसमें इतना और जोड़ा गया है कि दृष्टिको इधर उधर न घुमाकर नाकके अग्रभाग पर रखना चाहिये। पाली और सस्कृतके बौद्ध ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्ध स्वयं ध्यान करते थे और दूसरोंको भी पर्यङ्कासनसे ध्यान करनेका उपदेश देते थे। कालिदासने कुमारसम्भवमें (:, ४५-४७ ) शिवके पर्यङ्कासनसे बैठने आदिका वर्णन किया है। पतञ्जलिने योगदर्शन ( २-४६ ) में लिखा है कि शरीरकी स्थिति सीधी और सरल होनी चाहिये । 'दिगम्बर जैन ग्रन्थ आदि पुराण (पर्व २१) में ध्यानका वर्णन करते हुए दृष्टिके विषयमें लिखा है कि आंखें न तो एक दम खुली हुई हों और न एक दम बन्द हों। ...... तथा लिखा है कि कायोत्सर्ग और पर्यङ्क ये दो सुखासन हैं, इनके सिवाय शेष सब विषम आसन हैं। पर्यङ्कासनकी जैन परिभाषा तो बौद्धों और ब्राह्मणोंसे मिलती हुई है किन्तु कायोत्सर्ग आसन जैन है। आ० पु० के १८वें पर्वमें प्रथम तीथङ्कर ऋषभदेवके ध्यानका वर्णन इस दृष्टिसे उल्लेखनीय है।' भारतीय धर्मों में योगकी स्थितिका निर्देशकरके आगे पुनः श्रीचन्दा पुनः लिखते हैं-'मोहे-जो-दड़ोसे प्राप्त लाल पाषाणकी मूर्ति, जिसे पुजारीकी मूर्ति समझ लिया गया है, मुझे एक योगीकी मूर्ति प्रतीत होती है। और वह मुझे इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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