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________________ २२० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका “पार्श्वनाथके एक महायशस्वी शिष्य श्रमण केशीकुमार थे, जो ज्ञान और चरित्रके पारगामी थे। वे अपने शिष्योंके साथ ग्राम ग्राम भ्रमण करते हुए श्रावस्ती नगरीमें आये और वहाँ तिण्डुक नामक उद्यानमें ठहरे ॥ उसी समय सर्वलोकमें विश्रुत धर्म तीर्थकर भगवान महावीरके शिष्य, द्वादशांगवेत्ता महायशस्वी भगवान गौतम भी ग्राम-ग्राममें विचरण करते हुए अपने शिष्यसंघके साथ श्रावस्ती नगरीमें पधारे और कोष्ठक नामक उद्यानमें ठहरे। दोनोंके गुणवान् संयमी और तपस्वी शिष्योंको यह चिन्ता (विचार) उत्पन्न हुई कि यह धर्म कैसा है और वह धर्म कैसा है ? महा मुनि पावने चातुर्याम और सान्तरोत्तर धर्मका कथन किया और महावीरने पञ्चशिता रूप तथा अचेलक धर्मका कथन किया। एक ही मोक्षरूपी कार्यके लिये प्रवृत्त इन दोनों धर्मों में भेदका क्या कारण है ? अपने-अपने शिष्योंके इस वितर्कको जानकर केशी गौतमने परस्परमें मिलनेका विचार किया। 'विनयके ममज्ञ गौतम केशीको ज्येष्ठकुल (पार्श्वनाथके शिष्य होनेसे ) का मानकर अपने शिष्य संघके साथ तैन्दुक चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खियो। देसिनो वद्धमाणे पासेण य महामुणी ।। २३ ॥ एककज्जपवण्णाणं, विसेसे किं नु कारणं ? धम्मे दुविहे मेहावी ! कहं विप्पच्चों न ते ॥ २४ ॥ तो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमवन्वी । पन्ना समिक्खए धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वक जड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ॥ २६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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