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संघ भेद
४१३ - इस प्रकार अचेलकतामें लाघव बतजाकर आगे विमोक्षाध्ययनमें वस्त्रका विधान करते हुए कहा है__"जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखता है उसे ऐसा नहीं होता है कि चौथा वस्त्र मायूँगा । ( यदि उसके पास बस्त्र न हो और शीतकाल आ जाये तो उसे ) एषणाके अनुसार ही वस्त्र माँगने चाहिये और जैसे मिलें वैसे ही रखने चाहिये। उन्हें धोना नहीं चाहिये, धोकर रँगे हुए वस्त्र नहीं रखने चाहिये । प्रामान्तरको जाते हुए वस्रोंको छिपाना नहीं चाहिये। इस प्रकार वह अवमचेलक-अर्थात् अल्पवस्त्रवाला साधु होता है । यह वस्त्रधारी साधुकी सामग्री है । जब शीतकाल बीत जाय और ग्रीष्म ऋतु श्राजाय तथा वस्त्र यदि जीर्ण न हुए हों तो उन्हें कहीं रख दे (और नग्न विचरण करे, यदि शीतकाल चले जाने पर भी ठंड पड़ती हो तो ) वस्त्रोंको अपने पास रखे, जब आवश्यक हो तब
ओढले, आवश्यकता न हो तब उतार दे। अथवा तीनमें से दो वस्त्र रख ले, अथवा एक शाटक रख ले अथवा अचेल हो जाये। सू० २०८, २०६ ।।"
* इससे आगे दो वस्त्र रखने वाले भिक्षुके सम्बन्धमें भी यही विधान किया है और लिखा है कि जिस भिक्षुको यह मालूम हो कि मैं अशक्त हूं और गृहस्थोंके घर जाकर भिक्षाचार नहीं कर १ "जे भिक्खु तिहिं वत्येहिं परिवुसिए, पायच उत्थेर्हि तस्स णं नो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई जाइजा अपरिगहियाइं वत्थाई धारिजा, नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा, अपलि श्रोवमाणे गामंतरेसु अोमचेलिए, एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।' 'अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिहविजा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा अोमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले ॥सू० २०८, २०९॥"
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