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________________ श्रुतपरिचय ५८१ ३ वन्दना नामक अंगबाह्य एक जिनेन्द्र सम्बन्धी और उन एक जिनेन्द्र देवके अवलम्बनसे जिनालय सम्बन्धी वन्दना का सांगोपांग वर्णन करता है। ४ प्रमादसे लगे हुए दोषोंका निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। उसके सात भेद हैं-दिन सम्बन्धी, रात्रि सम्बन्धी, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक, और औत्तमार्थिक । प्रतिक्रमण नामक अंगबाह्य इन सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका कथन करता है। ५ वैनयिक नामक अंग बाह्य ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चरित्र विनय, तप विनय और उपचार विनयका वर्णन करता है। ६ कृतिकर्म नामक अंगबाह्य अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधुकी पूजा विधिका वर्णन करता है। ____ ७ दशवैकालिक नामक अंगबाह्य-मुनियोंकी आचार विधि और गोचर विधिका वर्णन करता है ८ उत्तराध्ययन चार प्रकारके उपसर्ग और बाईस परीषहोंके सहनेके विधानका और उनके सहन करनेके फलका तथा अनेक प्रकारके उत्तरोंका वर्णन करता है। ६ कल्प्यव्यवहार-साधुओंके योग्य आचरणका और अयोग्य आचरणके होने पर प्रायश्चित विधिका वर्णन करता है। १० कल्प्याकल्प्य-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर मुनियोंके यह योग्य और यह अयोग्य है, इत्यादिका वर्णन करता है। ११ महाकल्प्य-दीक्षाग्रहण, शिक्षा, आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तमस्थान रूप आराधनाको प्राप्त हुए साधुओंके करने योग्य आचारका वर्णन करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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