SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघ भेद ४४५ लिये अचेलक शब्द बहुतायतसे आता है। किन्तु बौद्ध अचेलकों और निर्ग्रन्थोंमें भेद करते हैं। धम्मपदकी बुद्धघोषकृत टीकामें कुछ भिक्षों के सम्बन्धमें यह कहा है कि वे अचेलकोंसे निग्रन्थों को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि अचेलक बिल्कुल नग्न होते हैं। (सब्वसो अपतिक्खन्ना)। जब कि निग्रन्थ मर्यादाकी रक्षाके लिये एक प्रकारके आवरणका उपयोग करते हैं। किन्तु उन भिक्षोंने गलत' समझ लिया बौद्ध अचेलकके द्वारा मक्खलि गोशाल ओर उसके पूर्वज किस संकिक और नन्दवक्खके अनुयायिका निर्देश करते हैं और मज्झिम निकायमें उनके नियमोंका विवरण देते हैं।। उत्तराध्ययनके जिस उल्लेखकी चची डा० याकोवीने उपरकी है उसके सम्बन्धमें हम पहले लिख आये हैं। इसमें पार्श्वनाथकी परम्पराके केशी श्रमण पार्श्वनाथके धर्मको सान्तरोत्तर और महा-- वीरके धर्मको अचेलक बतलाते हैं। 'सान्तरोत्तर' का एक अधोवस्त्र और एक उत्तरवस्त्र अर्थ जो डा० याकोवीने किया है वह श्वेताम्बरीय टीकाकारोंके अर्थोंको देखते हुए तो बहुत ही उचित है। किन्तु आचारांग सूत्रमें उसके प्रयोगको देखते हुए यह भी १-टिप्पणी में डा० याकोवीने लिखा है-'सेसकं पुरिमसमप्पिता व पतिक्खादेति' यह शब्द बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। किन्तु भेदसे उसका श्राशय स्पष्ट हो जाता है। मेरा विश्वास है कि पालि 'सेसक' शब्द शिश्नकके लिये आया है। यदि यह ठीक है तो उक्त पदका अर्थ इस प्रकार होगा । 'वे ( अपने शरीरके ) अग्र भागके लगभग ( एक वस्त्र ) धारण करके अपने गुप्त अंगको ढांक लेते हैं । २. श्राचार्य शीलाङ्गने अपनी टीकामें यही अर्थ किया है--सान्तर मुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति, क्वचित् पार्श्ववर्ति विभर्ति' । श्राचा० सू० टी० (सू० २०९)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy