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भगवान् पार्श्वनाथ
२१७ ही प्रमुख थे। इन प्रमुख छै सम्प्रदायोंके प्राचार्थ थे-पूरण काश्यप मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, प्रकुध कात्यायन, निगंठ नाथपुत्त ( महावीर ), और संजय बेलट्टिपुत्त । दीर्घ निकायके सामञ्जफलसुत्त ( पृ० २१) में इन छहोंका मत प्रतिपादित है। उसमें निगंठ नाथपुत्तको चतुर्याम संवरवादी कहा है। वे चार संबर इस प्रकार बतलाये हैं-१-निगंठ (निग्रन्थ ) जलके व्यवहारका वारण करता है (जिसमें जलके जीव न मरें)। २-सभी पापोंका वारण करता है। ३-सभी पापोंका वारण करनेसे धुतपाप होता है। ४-सभी पापोंके वारणमें लगा रहता है। ___ इसी तरह म०नि० ( पृ० २२५ ) में उपालि गृहपतिसे वातीलाप करते हुए गौतम बुद्धने कहा है- गृहपति ! यहाँ एक चातुर्याम संवरसे संवृत ( गोपित-रक्षित) सब वारिसे निवारित, सव वारि ( वारितों) को निवारण करनेमें तत्पर सब ( पाप-) वारिसे धुला हुआ, सब (पाप) वारिसे छूटा हुआ निग्रन्थ है।'
यद्यपि निम्रन्थ साधु जो आज जैन कहलाते हैं शीत जलका व्यवहार नहीं करते और सब पापोंका वारण करनेमें भी तत्पर रहते हैं किन्तु इन बातोंको चतुर्यामोंमें कहीं भी नहीं गिनाया। अतः उक्त बौद्ध उल्लेख अवश्य ही भ्रान्त है। किन्तु इस भ्रान्तिमें ही पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके बीज श्री याकोबीने देखें।
उन्होंने लिखा है-'निश्चय ही यह जैन मान्यताका यथार्थ वर्णन नहीं है यद्यपि उसमें और जैन मान्यतामें कुछ विरोध भी नहीं है। जैसा कि मैंने अन्यत्र स्पष्ट किया है मेरे विचारसे 'चातुर्याम
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