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________________ ४१६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका स्वामीके मोक्ष जानेके पश्चात् कोई जिनकल्प धारण नहीं कर सकता। इस घोषणाका श्रेय जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण महाराजको है उनके बिशेषावश्यक भाष्यमें ही जिनकल्पका विच्छेद करनेवाली गाथा पाई जाती है। वस्त्रका जोरदार समर्थन भी उसीमें मिलता है। तथा अचेलके वास्तविक अर्थमें परिवर्तन भा उनकी कृतिमें 'देखा जाता है। अचेलक और नाग्न्यके अर्थमें परिवर्तन आचारांगके अचेलकता प्रतिपादक वाक्योंको जिनकल्पका करार देकर और जिनकल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणाके पश्चात् दूसरा कार्य यह किया गया कि अचेल और नागन्य जैसे स्पष्ट शब्दोंके भी अर्थमें परिवर्तन कर डाला गया। 'वृहत्कल्पसूत्र और विशेषावश्यकभाष्यमें अचेलके दो भेद किये हैं-एक संताचेल (वस्त्र रहते हुए भी अचेल ) और एक असंत चेल ( वस्त्राभाव होनेसे अचेल )। तीर्थङ्करोंको असंतचेल बतलाया है क्योंकि देवदूष्यके गिर जानेके पश्चात् उनके पास सर्वदा ही वस्त्रका अभाव रहता है। शेष सभी साधुओंको जिनमें जिनकल्पी भी आ जाते हैं, संताचेल कहा है क्योंकि उनके पास रजो ३-'मण परमोहि-पुलाए श्राहारग-खवग उवसमे कप्पे । संजमतिय केवलिसिझणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥२५६३॥" -वि० भा० २-दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य । तित्थगरा असंत चेला संताचेला भवे सेसा ॥-० को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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