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________________ संघ भेद ४१५ शीत उष्ण डांस मच्छरकी परीषहसे बचना । इस सूत्रकी टीकामें एक गाथा' उद्धृत है, जिसमें बतलाया है कि लिंगके विकारोंको ढांकनेके लिये वस्त्र बतलाया है। सारांश यह है कि उक्त पाँच कारणोंसे प्रशस्त तो अचेल ही है किन्तु जो साधु शीत आदिके कष्टको सहन करनेमें असमर्थ हो, या लज्जाको जीतने में अशक्त हो, स्त्रीको देखकर जिसके अंगमें विकार उत्पन्न हो जाता हो या जिसका पुरुष चिन्ह ऐसा हो जिसे देखकर ग्लानि पैदा हो, तो उसके लिये ऋतु अनुसार तीन वस्त्रोंकी अनुज्ञा थी। यह आचारांग आदिके अवलोकनसे स्पष्ट होता है। .... किन्तु तथोक्त प्राचीन उपलब्ध आगमोंमें पाई जानेवाली उक्त स्थितिको भी उत्तर कालके ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने भरसक भ्रष्ट करके वस्त्र पात्रवादके प्रचारको ही अपना लक्ष्य बनाया , और उसीके पोषणमें अपनी शक्ति और श्रद्धाका उपयोग किया । इसके लिये सबसे प्रथम जिनकल्प और स्थविर कल्पका आश्रय लिया गया । (किसी प्राचीन अंगमें इनका निर्देश मेरे देखने में नहीं आया। वृहत्कल्पसूत्र में ही मुझे उनका प्रथम निर्देश मिला है।) और आचारांगके अचेलकता प्रतिपादक उल्लेखोंको जिनकल्प का प्रतिपादक करार दिया गया। आगमोंमें जो कठोर आचरण वर्णित था वह सब जिनकल्पका आचार बतलाया गया। और फिर जिन कल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणा कर दी गई कि जम्बू १-'श्राह च-वेउनि वाउडे वाइए य हिरि खद्ध पजणणे चेव । एसिं अणुग्गट्ठा लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ ॥" २--'छब्विहा कप्पठिई पन्नत्ता, तं जहा-जिण कप्प लिई, थेर कप्प. ट्ठिा ति वेमि ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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