SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका रथवीरपुरमें शिवभूति नामका एक क्षत्रिय रहता था। उसने अपने राजाके लिये अनेक युद्ध जीते थे। इसलिये राजा उसका विशेष सन्मान करता था , और इससे वह बड़ा घमण्डी हो गया था और रात्रिको बहुत विलम्बसे घर आता था। एक दिन वह बहुत रात गये घर लौटा । उसकी मांने द्वार नहीं खोला और उसे खूब बुरा भला कहा। तब वह साधुओंके उपाश्रयमें चला गया और उनसे व्रत देनेकी प्रार्थना की। साधुओंने उसे व्रत नहीं दिये। तब वह स्वयं :केशलोच करके साधु बन गया। राजाने शिवभूतिको एक बहुमूल्य रत्नकम्बल दिया। प्राचार्यने उसे लेनेसे मना किया। किन्तु शिवभूति नहीं माना। एक दिन आचार्यने शिवभूतिकी अनुपस्थितिमें उस रत्नकम्बलको फाड़कर उसके पैर पोंछनेके श्रासन बना डाले। इससे शिवभूति रुष्ट हो गया। एक दिन श्राचार्य जिन कल्पका वर्णन कर रहे थे। उसे सुनकर शिवभूति बोला-आजकल इतनी परिग्रह क्यों रखते हैं ? जिनकल्पको क्यों नहीं धारण करते ? आचार्यने उत्तर दिया-जम्बू स्वामी के पश्चात् जिन कल्पका विच्छेद हो गया। संहनन आदिके अभावमें आजकल उसका धारण करना शक्य नहीं है। इसपर शिवभूति बोला-'मेरे रहते हुए जिनकल्पका विच्छेद कैसे हो सकता है, मैं ही उसे धारण करूँगा। आचार्य तथा स्थविरोंने उसे बहुत समझाया किन्तु वह नहीं माना और वस्त्र त्याग कर चला गया। उसकी बहन उसे नमस्कार करनेके लिये गई। वह भी उसे देखकर नंगी हो गई। जब वह भिक्षाके लिये नगरमें गई तो एक गणिकाने उसे वस्त्र पहिना दिया। नंगी स्त्री बड़ी बीभत्स लगती है, यह सोचकर शिवभूतिने भी उसे सवस्त्र रहनेकी आज्ञा दे दी। पश्चात् शिवभूतिने कौडिन्य और कोट्टवीर नामके दो व्यक्तियोंको अपना शिष्य बनाया। इस तरह वीर निर्वाणके ६०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy