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________________ २५८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आव० नि० (गा० ५३८ ) में 'बतलाया है कि केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भगवान महावीर रात्रिमें ही महासेनवन् नामक उद्यानको चले गये । इसकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है 'भगवान महावीरको केवल ज्ञान उत्पन्न होनेके अनन्तर ही चारों प्रकारके देव आगये थे और उन्होंने हर्षित होकर ज्ञान कल्याणकका अद्भुत महोत्सव मनाया था। किन्तु भगवानने जाना कि यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो प्रव्रज्या धारणकर सके । यह जानकर वे विशिष्ट धर्मकथामें प्रवृत्त नहीं हुए। किन्तु ऐसा कल्प है कि जहां केवल ज्ञान हो वहाँ केवलीको कमसे कम भी एक अन्तमुहूर्त तक ठहरना चाहिए और देवकृत पूजाको स्वीकार करना चाहिए, तथा धर्मोपदेश भी करना चाहिए। इस नियोगके अनुसार संक्षेपसे धर्मोपदेश करके भगवान महावीर वहांसे विहार कर गये; क्योंकि उन्होंने अपने ज्ञानसे जाना कि यहां से बारह योजनपर मध्यमा नामकी नगरीमें सोमिल नामक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा है। वहां ग्यारह उपाध्याय आये हुए हैं । वे सव चरमशरीरी हैं और पूर्व जन्ममें उन्होंने गणधर लब्धिका उपार्जन किया है। यह जानकर देवताओंसे वेष्टित भगवान महावीर देवकृत प्रकाश के द्वारा रानिमें भी दिनका सा प्रकाश करते हुए मध्यमा नगरीके महासेन वन नामक उद्यानमें पधारे।' वहां दूसरे समवसरणकी रचना हुई और देवताओंने महावीर भगवानकी पूजा की। इसी दूसरे समवसरणमें भगवान महावीरको धर्म चक्रवर्तित्व प्राप्त हुआ १ 'उत्पन्न मि श्रणंते नट्ठम्मि अछाउमथिए नाणे । राइए संपत्तो महसेएवणम्मि उजाणे ॥ ५३८॥' २ "अमरनररायमहिश्रो पत्तो वरधम्मचकवट्टित्त। वीयम्मि समवसरणे पावाए मज्झिमाए उ ॥ ५३६ ॥ -श्राव०नि०, पृ० २६६ । । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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