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________________ २५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कारण रक्षित, गुप्त ) हो, यह भविष्यके लिये पापका न करना हुआ । इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्यासे अन्त होने से, और नये कर्मोंके न करने से, भविष्यमें चित्त अन्-श्रास्रव (निर्मल) होगा। भविष्यमें आस्रव न होनेसे कर्मोंका क्षय (होगा), कर्मक्षयसे दुःखका क्षय, दुःखक्षयसे वेदना ( =झेलना) का क्षय, वेदनाक्षयसे सभी दुःख नष्ट होंगे। हमें यह विचार रुचता है = खमता है इससे हम सन्तुष्ट हैं।' ____ इसी तरह म०नि० के चूल सकुलुदायी सुत्तन्त (पृ० ३१८) में लिखा है__'एक समय भगवान बुद्ध राजगृहमें बेणुबन कलन्दक निकायमें विहार करते थे। उस समय सकुल उदायि परिव्राजक महती परिषद्के साथ परिव्राजकाराममें रहता था। भगवान् पूर्वाहण समय जहाँ सकुल उदायी परिव्राजक था, वहाँ गये। तब सकुल उदायी परिव्राजक ने कहा पिछले दिनों भन्ते ! (जो वह ) सर्वज्ञ सर्वदर्शी निखिल ज्ञान दर्शन होनेका दावा करते हैं-चलते, खड़े, सोते जागते भी ( मुझे ) निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है । कौन है यह उदायी सर्वज्ञ सर्वदर्शी..... "बुद्ध भगवानने पूछा 'भन्ते ! निगंथ नाटपुत्त ! ऊपरके दोनों उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होनेकी बात श्रमण सम्प्रदायमें विश्रुत थी और सर्वज्ञ सर्वदर्शीका वही अर्थ लिया जाता था जो जैन शास्त्रोंमें वर्णित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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