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________________ ५६७ श्रुतपरिचय नामके अनुसार द्वादशांगसे बाह्य होता है और उसकी रचना पारातीय पुरुष करते हैं । इस तरह श्रुत के भेदों में मुख्य अंग पविठ्ठ ही है । किन्तु वर्णन करते समय पहले अणंग पविट्ठ या अंग बाह्यको स्थान दिया गया है, तत्पश्चात् क्रमशः अग पविट्ठ को स्थान दिया गया है। श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यमें प्रायः यही क्रम देखने में आता है। श्वेताम्बर परम्परामें अगबाह्यके दो मूल भेद हैं आवश्यक और आवश्यक अतिरिक्त । तथा आवश्यक के छै भेद हैं जिनमें प्रथम भेद का नाम सामायिक है। अब यदि अगबाह्य का कथन किया जाये तो वह सामायिक आवश्यकसे प्रारम्भ होगा । उधर अग पविठ्ठ के बारह भेदों में अन्तिम बारहवाँ भेद दृष्टिवाद है। और दृष्टिवादके पाँच भेदोंमें प्रमुख चौदह पूर्व हैं । और अन्तिम चौदहवें पूर्व का नाम लोक बिन्दुसार है जिसका संक्षिप्त नाम बिन्दुसार भी है। अतः श्रुत' सामायिक से लेकर बिन्दुसार पर्यन्त जानना चाहिये। उसमें अग बाह्य और अगपविट्ठ दोनोंका समावेश हो जाता है। १–'तत् श्रुत ज्ञानं सामायिकमादिर्यस्य तत् सामायिकादि यावत् विन्दुसारात्-विन्दुसारं यावत्, बिन्दुसाराख्य चतुर्दशपूर्वपर्यन्तमित्यर्थः ।' आव० म० टी०, पृ० ११६ । 'तच्च श्रुत ज्ञानं सामायिकादि वर्तते, चरयाप्रतिपत्तिकाले सामायिकस्यैवादौ प्रदानात् । यावद् विन्दुसारादिति विन्दुसाराभिधानं चतुर्दश पूर्वपर्यन्त मित्यर्थः ।-विशेषा• भा०, हे० टी०, गा० ५१२६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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