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________________ १७८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ___ यद्यपि ये कथाएँ जैन धर्मको असुरों-दैत्यों दानवोंका धर्म कहकर बदनाम करनेके लिये ही रची गई हैं। तथापि यदि इनमें कुछ तथ्यांश मान लिया जाये तो कहना होगा कि ऋग्वेदमें जिन अपने विरोधियोंको दास दस्यु असुर आदि शब्दोंसे पुकारा गया है, उनमें उस वेदविरोधी धर्मके अनुयायी भी हो सकते हैं जो आज जैनधर्म कहलाता है। अतः आधुनिक जैन धर्मका पूर्वरूप उन जातियोंमेंसे किसी एकका धर्म हो सकता है, जो सिन्धुघाटी सभ्यताके कालमें वर्तमान थीं, और उसीके पूर्वपुरुष योगी ऋषभदेव थे। किन्तु उस समय जैन धर्म किस नामसे उल्लिखित होता था यह अन्धकारमें है, क्योंकि महाबीरके समयमें जैन साधुओंका सम्प्रदाय निग्रन्थ सम्प्रदाय कहलाता था। उसके बाद उनका धर्म आहत धर्म कहा जाने लगा और फिर जैन धर्म कहा जाने लगा। इससे नाम भेद होना ही संभव है। एक बात और भी दृष्टव्य है। जैन शास्त्रोंमें ऋषभदेवको इक्ष्वाकु वंशीके साथ ही पुरुवंश नायक लिखा है। ऋग्वेदके अनुसार भी इक्ष्वाकु पुरुराजाओंकी ही एक श्रेणी थी। ऋग० (१-१०८-८ ) में अनु, द्रा, तुर्वश और यदुके साथ पुरुका भी निर्देश है । तथा ऋक (s-c-2) में पुरुओंको जीतनेके उपलक्षमें भरतोंके अग्निहोत्र करनेका निर्देश है। __ऋग्वेद तथा उसके पश्चात्के साहित्यमें भरतोंका विशेष महत्व बतलाया है। एक ऋचामें भरतोंको पुरुओंका शत्रु १-पुरु आये हैं। और इक्ष्वाकु के सम्बन्धमें पहले पृ० १५ पर लिख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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