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श्रुतपरिचय
बारह अंगोंके नाम आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृदश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद, ये बारह अंगोंके नाम दोनों सम्प्रदायोंमें समान हैं। इन बारह अंगोंमेंसे जो अन्तिम बारहवाँ अंग था, वह उक्त ग्यारहों अंगोंसे बहुत विशाल तो था ही, महत्त्वपूर्ण भी था। उसीके पाँच भेदोंमेंसे एक भेद पूर्व था और पूर्व के चौदह भेद थे। इन पूर्वोका महत्त्व शेष ग्यारह अंगो से बहुत अधिक था और इन्हींके कारण बारहवाँ अंग दृष्टिवाद सबसे महत्त्वशाली माना जाता था।
दृष्टिवादका महत्त्व भगवान महावीरके समयमें भी संस्कृत भाषाका प्रचार था। वेद और वैदिक साहित्यकी भाषा संस्कृत ही है। इसीसे धर्मकी भाषा संस्कृत ही मानी जाती थी। किन्तु महावीर और बुद्धने लाक भाषाको ही अपने उपदेशोंका माध्यम बनाया, जिसे सब कोई सुगम रीतिसे समझ सकता था। फलतः जैन अंगों और पूर्वोकी भाषा प्राकृत थी।
श्वेताम्बर साहित्यमें यह प्रश्न उठाया गया है कि जैन सिद्धान्त प्राकृत भाषामें ही क्यों रचे गये ? उत्तरमें कहा गया है कि बाल, स्त्री, और मन्द बुद्धियोंके अनुग्रहके लिये जैन सिद्धान्तों की रचना प्राकृतमें की गई है। विज्ञोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जिन तीन मुख्य बातों को लेकर मतभेद है, उनमेंसे एक स्त्री मुक्ति है। दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्रियोंकी मुक्ति नहीं मानता अर्थात् स्त्री मुक्तिलाभ नहीं कर
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