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सकती । किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रियोंको भी मुक्तिका अधिकारी मानता है । परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ' स्त्रियोंको दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगके अध्ययनका अधिकार नहीं था । दृष्टिवादको छोड़कर शेष ग्यारह अंगोंको स्त्री, बालक आदि सब पढ़ सकते हैं। बल्कि दृष्टिवादका पठन निषिद्ध होनेसे स्त्रियोंको भी कुछ श्रुत प्रदान करनेको भावनासे ही ग्यारह अंग रचे गये ।
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० सा० इ० पू० पीठिका
इससे दृष्टिवादका महत्त्व और शेष ग्यारह अंगों की स्थिति पर पूर्व प्रकाश पड़ता है । दिगम्बर परम्परा में ग्यारह अंगों से बारहवे अंग दृष्टिवादका महत्त्वका नहीं प्रकट किया गया है किन्तु ग्यारह अंगों की अपेक्षा चौदह पूर्वोका अपना एक विशिष्ट स्थान अवश्य बतलाया गया है । और चौदह पूर्वोके कारण ही दृष्टिवादका वास्तवमें महत्त्व था
पूर्वोका महत्त्व
दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री कुन्दकुन्दने श्रुतकेवती भद्रबाहुका जयघोष करते हुए उन्हें बारह अंगों और चौदह पूर्वोका
१. 'मुत्तू दिट्ठवायं कालिय-उक्कालियंग सिद्धतं । थी- वालवायणत्थं पाइयमुइयं जिणवरेहिं ।' -- चार दिनकर में उद्धृत ।
'ननु स्त्रीणां दृष्टिवादः किमिति न दीयते ? इत्याह-
'तुच्छा गारव बहुला चलिंदिया दुव्वला घिईए । इय इसेसज्झरयणा भूयावाश्रो य नो थीणं ।। ५५२ ।।
टीका - श्रनुग्रहार्थं तासामापि किञ्चत् श्रुतं देयमित्येकादशाङ्गादिविरचनं सफलमिति गाथार्थः । --विशे० भा० ।
२. 'बारस श्रृङ्गवियाण' चौद्दस पुब्बंग विउलवित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहु गमयगुरू भयवनों जयऊ ||६२|| - बोध पा० (षट् प्राभृतादि०) ।
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