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________________ आचार्य काल गणना ३४३ भद्रबाहुने जैसे ही एक शून्यगृहमें प्रवेश किया। एक शिशुने कहा-'यहाँसे जल्दी चले जाओ।' दिव्यज्ञानी भद्रबाहुने शिशुके यह बचन सुनकर जाना कि यहाँ बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। ऐसा जानकर वे भोजन किये बिना ही लौट गये। उन्होंने संघसे यह समाचार कहा कि मेरी आयु थोड़ी है अतः मैं तो यहीं ठहरूँगा आप लोग समुद्रके समीप चले जायें। यह सुनकर नरेश्वर चन्द्रगुप्तने भी उनके पास जिन दीक्षा ले ली । मुनि होनेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाखाचार्य हो गया और वे दस पूर्वियोंमें प्रथम हुए तथा संघके अधिपति बना दिये गये। उनके साथ सब संघ भद्रबाहुकी आज्ञानुसार दक्षिणापथ देशमें स्थित पुन्नार नगरको चला गया। भद्रबाहु मुनिने भाद्रपद देशमें जाकर समाधि मरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। ___ इस कथामें भद्रबाहुको श्रुतकेवली तथा उनके गुरुका नाम गोवर्धन दिया है और चन्द्रगुप्त नरेश्वरको दीक्षा देनेके पश्चात् उनका उत्तराधिकारी विशाखाचार्य बतलाया है। समस्त दिगम्बर जैन साहित्यमें तथा शिलालेखोंमें गोवधनको चतुर्थ श्रुतकेवली बतलाया है और उन्हें भद्रबाहु श्रुत केवलीका पूर्वज बतलाया है। तथा भद्रबाहुको पुडवर्धन देशके कोटिमत नगरका वासी बतलाया है। अतः यह निर्विवाद है कि वृ• क० कोशमें जिस भद्रबाहुका आख्यान दिया है वे श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं, और उनके समयमें चन्द्रगुप्त नामका यदि कोई राजा हुआ है तो वह मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही है। चन्द्रगुप्त नामक अन्य राजा तो बहुत समय पश्चात् हुए हैं। अतः उनके श्रुतकेवली भद्रबाहुके समकालीन होनेका प्रश्न ही नहीं है। श्री सत्यकेतु बिद्यालंकारने अपने मौर्य साम्राज्यके इतिहासमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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