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जै० सा० इ० पूर्व पीठिका के जीवन मरण, सुख दुःख और लाभ अलाभकी जानकारी होती है। ये ज्योतिषसे सम्बद्ध हैं । इन्हींके आधार पर गोशालकने यह सिद्धान्त स्थापित किया कि सब प्राणियोंके लिये ये छ बातें अनतिक्रमणीय हैं---जीवन मरण, सुख दुःख, लाभ अलाभ । इनको टाला नहीं जा सकता, जिसके भाग्यमें जो बदा है वह होता है। यही गोशालकका प्रसिद्ध दैववादका सिद्धान्त है। सम्भवतः अपने इस सिद्धान्तको अपने जीवन व्यवहारमें उतारनेके कारण ही उस पर अब्रह्मचर्यावासका दूषण जैन और बौद्ध दोनोंने लगाया है जो साधार प्रतीत होता है। क्योंकि शुद्ध दैववादके सिद्धान्तका परिणाम 'अनैतिक आचरण' है। जब पाप पुण्य केवल देवाधीन हैं, पुरुषका उसमें कुछ भी कर्तृत्व नहीं है, तब नैतिक होनेका प्रयत्न करनेकी आवश्यकता ही क्या है ?
किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिये कि चूंकि गोशालकके दैववादका सिद्धान्त पूर्वोसे लिया गया था इसलिये महावीर और गोशालकमें सैद्धान्तिक मतभेद नहीं था, जैसा कि डा० हानलेका कथन है। जैन धर्ममें इस प्रकारके दैववादको कोई स्थान नहीं है, क्योंकि जैन धर्म में यद्यपि 'कर्म' का महत्त्व है किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वकृत कर्मोको परिवर्तित ही नहीं, किन्तु नष्ट भी किया जा सकता है । अस्तु, ऊपरके उल्लेखसे स्पष्ट है कि गोशालक पार्थापत्यीयोंके भी संसगमें था। ___ अब हम सूत्र कृतांगसे कुछ उदाहरण और देते हैं जिनसे भी उक्त बातका समर्थन होता है
सूत्रकृतांगसे पता चलता है कि तिलके पौदेको लेकर गोशा लकने जिस प्रकारकी आपत्ति की थी, उसी प्रकारका कुतर्क पावापत्य भी करते थे।
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