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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४७ अपने क्षात्र धर्मको त्यागकर संन्यासको स्वीकार करनेके लिये तैयार हो गया था। और उस समय उसको ठीक मागेपर लानेके लिये श्री कृष्णने वेदान्त शास्त्रके आधारपर यह प्रतिपादन किया कि कर्म योग ही अधिक श्रीयस्कर है। कर्म योगमें बुद्धि ही की प्रधानता रहती है । इसलिये ब्रह्मात्मैक्य ज्ञानसे अथवा परमेश्वर की भक्तिसे अपनी बुद्धिको साम्यावस्थामें रखकर उस बुद्धिके द्वारा स्वधर्मानुसार सब कर्म करते रहनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, मोक्ष पानेके लिये इसके सिवा अन्य किसी बातकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार उपदेश करके भगवानने अर्जुनको युद्ध करनेमें प्रवृत्त कर दिया। गीताका यही यथार्थ तात्पर्य है (गी. र० पृ०५०६)। - अन्यस्थलपर उन्होंने लिखा है-“साम्प्रदायिक टीकाकारोंने कर्मयोगको गौण ठहराकर गीताके जो अनेक प्रकारके तात्पर्य बतलाये हैं वे यथार्थ नहीं हैं । किन्तु उपनिषदोंमें वर्णित अद्वैत वेदान्तका भक्तिके साथ मेलकर उसके द्वारा बड़े बड़े कर्मवीरोंके चरित्रोंका रहस्य या उनके जीवनक्रमकी उपपत्ति बतलाना ही गीताका सच्चा तात्पर्य है। मीमांसकोंके अनुसार केवल श्रौत स्मार्त कर्मोंको सदैव करते रहना भलेही शास्त्रोक्त हो, तो भी ज्ञानरहित केवल तांत्रिक क्रियासे बुद्धिमान मनुष्यका समाधान नहीं होता, और यदि उपनिषदोंमें वर्णित धर्मको देखें तो वह केवल ज्ञानमय होनेके कारण अल्पबुद्धिवाले मनुष्यों के लिये अत्यन्त कष्ट साध्य है। इसके सिवा एक बात और भी है कि उपनिषदोंका संन्यासमार्ग लोकसंग्रहका बाधक भी है ( गी० २० पृ. ४७०)। गीताकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे प्राचीन टीका शंकराचार्य की है, उन्होंने तथा अन्य भी टीकाकारोंमें संन्यास मार्गका प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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