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श्रुतावतार हुई होगी और अनेक काट छांट होनेके उपरान्त ही दोनों संघोंमें समझौता हुआ होगा। हमारे इस अनुमानको पुष्टिमें निम्नलिखित' गाथा उपस्थितकी जा सकती है जिसका भाव यह है कि-युग प्रधानतुल्य गंधर्व वादिवे ताल शान्तिसूरिने वालभ्यसंघके कार्यके लिये वलभी नगरीमें उद्यम किया।' (पृ० ११७ )
यह ठीक है कि कतिपय आगमोंमें वाचनान्तरका निर्देश पाया जाता है और टीकाकारोंने उन्हें नागार्जुनीयोंकी वाचना कहा है। तथा भद्रेश्वरने भी उन टीका ग्रन्थोंको देखकर ही अपनी कथावलीमें वैसा लिख दिया है। किन्तु वलभीमें होने वाली उक्त नागार्जुनीय वाचनाका निर्देश किसी प्राचीन ग्रन्थमें नहीं मिलता। जबकि जिनदास महत्तर कृत नन्दि चूर्णिमें तथा हरिभद्र कृत नन्दि टीकामें माथुरी वाचनाका कथन मिलता है। नागार्जुनकी वालभी वाचना सम्बन्धी उक्त सभी उल्लेख विक्रमकी १२ वीं शतीसे पश्चात् के हैं।
दूसरे, वादि वेताल शान्ति सूरिको वलभीमें नागार्जुनीयोंका पक्ष उपस्थित करनेवाला बतलाया है। प्रभावक चरित । पृ० १३३-१३७ ) में लिखा है कि शान्त्याचार्य को राजा भोजने वादिवेतालका विरुद दिया था। अतः वे राजा भोजके समकालीन थे। उनकी मृत्यु वि० सं० ५०९६ में हुई। ऐसी स्थितिमें देवर्द्धिके
१-'वालब्भ संघकज्जे उज्जमिनं जुगपहाणतुल्लेहिं ।
गंधब्बवाइवेयालसंतिसूरीहिं बलहीए ॥२॥ यह गाथा एक दुषमा संघ स्तोत्रयंत्र की प्रति के हाशिये पर लिखी हुई है | - पृ० ११७ ।
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