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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४५ अर्जुनके मन में यह प्रश्न उठा कि अपने ही सम्बन्धियोंको कैसे मारा जाये और वह गाण्डीव डालकर बैठ गया। तब कृष्णने उसे उपदेश देकर युद्ध के लिये प्रवृत्त किया। अतः युद्धसे विरत अजुनको युद्धमें प्रवृत्त करना ही गीताका उद्देश्य है । युद्धके मैदानमें बन्धु बान्धवोंके विनाश तथा युद्धके दुष्परिणामोंसे भीत क्षत्रिय पुत्र अर्जुनके युद्धसे विरत होनेकी घटनाको यदि एक रूपक मान लिया जाये तो कहना होगा कि हत्याके भयसे भीत क्षत्रिय पुत्रोंको स्वकर्ममें निरत करनेके लिये ही गीताकी सृष्टि हुई है। जरा प्रारम्भमें अर्जुनका कथन पढ़ जाइये। वह कहता है-'हे कृष्ण ! युद्ध करनेकी इच्छासे एकत्र हुए इन स्वजनोंको देखकर मेरे गात्र शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, शरीर कांपता है, गाण्डीव हाथसे गिरा जाता है, मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता' (गी० अ० १, श्लो० २८-३०)। ये सब कायरताके चिन्ह हैं। __आगे अर्जुन कहता है-हे जनार्दन ! इन कौरवोंको मारकर हमारा कौन सा प्रिय होगा । यद्यपि ये आततायी हैं तो भी इनको मारनेसे हमको पाप ही लगेगा। ( मनुने ऐसे आतताइयोंको तत्काल जानसे मार डालनेका विधान करते हुए कहा है कि इसमें कोई पाप नहीं है मनु० ८-३५० ) । इसके बाद अर्जुनने युद्धसे होनेवाले कुलक्षयके अनेक दुष्परिणाम बतलाते हुए कहा-यदि मैं निःशस्त्र होकर प्रतिकार करना छोड़ दू और शस्त्रधारी कौरव मेरा वध करदें तो मेरा अधिक कल्याण होगा (गी० अ० १ श्लो० ४६)। यह न भूलना चाहिये कि महाभारतका युद्ध न केवल एक ही राष्ट्र और एक ही धर्मके लोगोंके बीचमें हुआ था। किन्तु एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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