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________________ ३९८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका 'सान्तर है उत्तर-ओढ़ना जिसका' अर्थात् जो आवश्यकता होने पर वस्त्रका उपयोग कर लेता है, नहीं तो पासमें रखे रहता है । प्राचार्यने उसका खुलासा करते हुए लिखा है-'शीत चले जाने पर वस्त्रको छोड़ देना चाहिये। अथवा यदि क्षेत्र ऐसा हो जहाँ अभी भी ठंढी हवा बहती हो तो शीतसे बचनेके लिये और अपनी शक्तिको तोलने के लिये 'सान्तरोत्तर' हो जाये। अर्थात् वस्त्रका परित्याग न करके उसे पासमें रखे रहे, आवश्यकता हो तो उसका उपयोग कर ले। केशीने जो पार्श्वनाथके धर्मको सान्तरोत्तर' बतलाया है वहाँ पर भी सान्तरोत्तरका यही अर्थ सुसंगत जान पड़ता है। उससे प्रकट होता है कि पार्श्वनाथके साधु सर्वथा अचेल विहार नहीं करते थे किन्तु पासमें वस्त्र रखते थे। आवश्यकता देखते थे तो उसका उपयोग कर लेते थे। और यह छूट उनके लिये इसलिये दी गई थी क्योंकि वे सरल हृदय और ज्ञानी थे। सुविधाके रहस्यको समझते थे-उसका दुरुपयोग करनेकी दुर्बुद्धि उनमें नहीं थी। इसीलिये पार्श्वनाथके धर्मको श्वेताम्बर साहित्यमें सचेल और अचेल दोनों बतलाया है। सान्तरोत्तरके उक्त अर्थके साथ उसकी संगति ठीक बैठ जाती है । जब पार्श्वनाथके। साधु वस्त्रका उपयोग करते थे तो वे सचेल कहे जाते थे और जब वस्त्रका उपयोग नहीं करते थे तो वे अचेल कहे जाते थे। किन्तु उनका आदर्श अचेलता थी सचेलता नहीं। भगवान महावीरने अपने शिष्योंकी स्थितिको देखकर उसमें इतना सुधार कर दिया कि हमारे साधु जि० ४५, पृ० १२३ ) । श्वेताम्बर टीकाकारों के 'बहुमूल्य और अपरिमित वस्त्र' जैसे अर्थसे या० याकोबीका अर्थ अधिक सुसंगत प्रतीत होता है अन्तर और उत्तर वस्त्रसे सहित जो हो वह सान्तरोत्तर है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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