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जै० सा० ई० पू०-पीठिका ७३। षट्खं० पु. १, पृ० ६६)। स्व समय परसमयका तथा स्त्री सम्बन्धी परिणाम, क्लीवत्व, अस्फुटत्व, कामावेश. विलास, रति सुख, और पुरुषकी इच्छा करना आदि स्त्रीके लक्षणोंका कथन करता है (क० पा०, भा० १, पृ० १२२ ) । एक सौ अस्सी क्रियावादी, चौरासी अक्रियावादी, सड़सठ अज्ञानवादी, और बत्तीस वैनयिकवादी, इस तरह तीन सौ त्रेसठ मतोंका खण्डन करके स्व. समयकी स्थापना करता है ( नन्दी० सू० ४७; सम० सू० १४७ )। उसमें छत्तीस हजार पद होते हैं । ___ वर्तमान 'सूत्रकृतांगमें दो श्रु त स्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध श्लोक तथा अन्य छन्दोंमें निबद्ध है । दूसरा श्रुत स्कन्ध अध्ययन ५.६ को छोड़कर गद्यमें रचा गया है। दोनों श्रुत स्कन्धों में २३ अध्ययन हैं-प्रथममें १६ और दूसरेमें सात । इनके नाम वि० प्र० (पृ० ५२ ) में दिये हैं।
१ समय-इसमें चार उद्देश हैं। तथा चार्वाक, बौद्ध, नियतिवाद आदि दर्शनोंकी समीक्षा है । प्रथम उद्देशकी समाप्ति इस श्लोकाधके द्वारा होती है-'नायपुत्ते महावीरे एवं प्राह जिणोत्तम'
२ वेयालीय-वेतालिय-वैदारिक-इसमें तीन उद्देश हैं। प्रथम का आरम्भ इस प्रकारसे होता है_ 'संबुज्झह किं न बुज्झह संवोही खलु पेञ्च दुल्लहा'
जिस छन्दमें यह पद्य रचा गया है उसे पिंगल तथा वराहमिहिर ने वेतालीया कहा है। शायद इसीसे इस अध्ययनका नाम वेतालीय रखा गया है। किन्तु डा० वेबरका कहना है 'सूत्र'कृतांगके वेतालीय नामक अध्ययनके कारण ही उक्त
१-'सूयगडे सुयखंधा दोन्निउ पढमम्मि सोलसज्झयणा । चउ, तिय, चउ, दो दो एक्कारस पढम सुयखंधस्स ॥ १॥ -वि० प्र०, पृ० ५२।
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