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________________ ३३४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका ४६७-४५८ ई० पू० ४५८-४१८ "" ४१८-४१० 39 मुण्ड महानन्दी महानदी के दो बेटे ३७४-३६६, ४०६-३७४ "" महापद्मनन्द ३६६-३३८ "" अनुरुद्ध नन्दिवर्धन धननन्द चन्द्रगुप्त मौर्य ३३८-३२६ "" ३२६-२५-३०२ ई० पू० यह हर्षवर्धन नन्दवर्धन होना चाहिये हैं । और प्राचीन भारत में ऐसा प्रयोग ४० २३८ ) । क्योंकि हर्ष और नन्द समानार्थक करनेकी प्रथा थी' । ( वही, बेरुनीने इस सम्बत् को मथुरा और कन्नौज में प्रचलित पाया था । उसने लोगों से सुना कि इस सम्बत् के प्रवर्तक राजाने टैक्स घटा दिये थे क्योंकि उसे पृथ्वी में से बहुत धन मिला था । यह बात नन्दोंके गढ़े हुए कोशोंका स्मरण कराती है । यह प्रसिद्ध है कि नन्दवर्धनने प्रद्योतके अवन्तिराज्यको जीत लिया था और मथुरा अवन्तिराज्यका एक अंग था । अतः मथुरा और अन्तर्वर्ती कन्नौज नन्दवर्धन के मगध साम्राज्य के अन्तवर्गत थे । अतः उन प्रदेशों में नन्द सम्वत्का प्रचलित होना स्वाभाविक था । Jain Educationa International उक्त प्रमाणों के आधार पर श्रीजायसवाल जीने खारवेल के शिलालेखमें निर्दिष्ट सम्बत्को नन्दसम्वत् माना जो ई० पूर्व ४५८ में प्रचलित किया गया था चार जिसका प्रचलनकर्ता नन्दवर्धन था । जायसवाल जीको नन्दिवर्धनका राज्याभिषेक काल ४५८ ई० पू० निर्धारित करने के लिये मगध राजवंशकी नामावली में भी थोड़ा सा उलट कर करना पड़ा । (ज० वि० उ०रि० सो० जि० १३, पृ० २३९ ) उन्होंने मगधराज उदायीका अन्तकाल ४६५ ई० पू० माना है । जैन For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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